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युगल की मेंट]
भगवान् श्री मल्लिनाथ
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शान्त देख कर प्रलयघटा में कड़कती बिजली के स्वर में जल, स्थल और नभ को प्रकम्पित करते हुए दूसरी बार अपने उसी उपर्युक्त कथन को दोहराया। इस कर्णवेधी अति कर्कश, कठोर कथन का अरहन्नक के तन, मन अथवा हृदय पर कोई प्रभाव पड़ा कि नहीं, इस प्रकार की प्रतिक्रिया की कुछ क्षणों तक प्रतीक्षा करने के पश्चात् जब उस पिशाच ने यह देखा कि उसके द्वारा सभी प्रकार का भय दिखाये जाने पर अरहन्नक अडिग आसन से पूर्णतः शान्त, निर्भय मुद्रा में ध्यान मग्न हैं, तो उसे अरहन्नक के साथ-साथ अपनी असफलता पर भी परम क्षोभ और भीषण क्रोध आया। उसने भयावह हुंकार से दशों दिशाओं को कम्पायमान करते हुए अरहन्नक के जलपोत को अपनी दो अंगुलियों पर उठा लिया । जलपोत को अपनी मध्यमा और तर्जनी अंगुलियों पर रख उसने आकाश की ओर ऊंची छलांग भरी । आकाश में सात-आठ ताल वृक्ष प्रमाण ऊंचाई पर जा कर गगन को गुजायमान कर देने वाले उच्चतम आक्रोशपूर्ण स्वर में एक बार पुनः अपने उपर्युक्त कथन को दोहराते हुए कहा--"अरे ओ ! अप्राथित मृत्य की प्रार्थना करने वाले निर्लज्ज, निश्श्रीक अरहन्नक ! अब भी समय है, अपने सम्यक्त्व को, अपनी आस्था को, अपने बारह प्रकार के श्रमणोपासक धर्म को छोड़ दे, अन्यथा मैं तुझे तेरे इस जलयान के साथ ही भीषण दंष्ट्राकराल वाले बुभुक्षित मकरों से संकुल सागर के अगाध जल में डुबोता हूं।"
अपने इस कथन के उपरान्त भी जब उस पिशाच ने अपने अवधिज्ञान के उपयोग से देखा कि अरहन्नक के तन, मन, मस्तिष्क अथवा हृदय पर उसके अति कर्कश कथन और प्राणान्तक भीषरण कृत्य का भी कोई किंचिन्मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा है, वह पूर्ववत् अपने धर्म पर, अपनी श्रद्धा-प्रास्था पर, सम्यक्त्व पर पूर्णरूपेण सुस्थिर है, उसकी निर्ग्रन्थ प्रवचन पर जो प्रट प्रास्था है, उस आस्था श्रद्धा से उसे विलित करने के लिए उसने जितने भीषण से भीषण उपाय किये हैं, वे सब निष्फल सिद्ध हुए हैं, वह अपने धर्म पथ से किचिन्मात्र भी स्खलित अथवा विचलित नहीं हुआ है, तो उसने परहन्नक को उपसर्ग देने का विचार त्याग दिया । उसने अरहन्नक के जलपोत को शनैः शनै: समुद्र के जल की सतह पर रखा । तदनन्तर उसने अपने घोर भयावह पिशाच रूप का परित्याग कर दिव्य देव रूप को धारण किया। उस देव ने हाथ जोड़ कर अरहन्नक से क्षमा मांगते हुए सादर झुक कर विनम्र स्वर में कहा-'हे देवानप्रिय अरहन्नक.! तुम धन्य हो कि तुमने निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति इस प्रकार की अनुपम अविचल आस्था, संसार की किसी भी शक्ति से किंचिन्मात्र भी परिचालित नहीं की जा सकने वाली श्लाघनीय अगाध प्रक्षोभ्य श्रद्धा अवाप्त की है । सौधर्मपति देवराज इन्द्र ने अपने सौधर्मावतंसक विमान में स्थित सौधर्म सभा में विशाल देवममूह के समक्ष दृढ़ विश्वास के साथ, गुरु-गम्भीर तथा सुस्पष्ट शब्दों में अपने प्रान्तरिक उद्गार अभिव्यक्त करते हुए कहा था कि
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