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________________ २६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [अरहनक द्वारा दिव्य-कुण्डल किन्तु श्रमणोपासक अरहन्नक उस काल के समान विकराल पिशाच को देख कर किंचिन्मात्र भी भयभीत अथवा विचलित नहीं हुआ । वह पूर्णत: शान्त और निरुद्विग्न बना रहा । उसने जलपोत के एक स्थान को वस्त्र के छोर से प्रमाजित किया, उस स्थान को जीवादि से रहित विशुद्ध बना कर वहीं स्थिरअचल आसन से बैठ गया। उसने अपने दोनों हाथों को जोड़ अंजलि से अपने भाल को छूमा और आवर्त करते हुए इन्द्रस्तव से धैर्यपूर्वक सिद्ध प्रभु की स्तुति की। तदनन्तर यह उच्चारण करते हुए कि यदि मैं इस पिशाचकृत उपसर्ग से बच गया तो अशनादि ग्रहण करूगा और यदि मैं इस उपसर्ग से नहीं बचा, जीवित नहीं रहा तो जीवन पर्यन्त अशन-पानादि ग्रहण नहीं करूंगा, उसने आगार सहित अनशन का प्रत्याख्यान किया। इस प्रकार अरहन्नक द्वारा सागारिक संथारा ग्रहण किये जाने के कुछ ही क्षण पश्चात् वह विकराल पिशाच हाथ में दुधारा खड्ग लिये हुए अरहन्नक के पास आया और अत्यन्त क्रुद्ध मुद्रा में लाललाल भयावनी अांखें दिखाते हुए अरहन्नक से कहने लगा- "अरे प्रो! प्राणिमात्र द्वारा अप्रार्थित मृत्यु की प्रार्थना करने वाले, कृष्णपक्ष की चतुर्दशी अथवा अमावस्या की कालरात्रि में जन्म ग्रहण किये हुए लज्जा और शोभा विहीन अरहन्नक !'तेरे द्वारा ग्रहण किये गये ४ शिक्षाव्रतों, ५ अणुव्रतों और ३ गुणवतों रूप १२ प्रकार के श्रावक धर्म को पूर्णत: अथवा अंशतः खण्डित करवाने में तुझे सम्यक्त्व से, तेरे इस १२ प्रकार के श्रमरणोपासक धर्म से पतित करने में कोई भी देव-दानव की शक्ति असमर्थ है । तेरा भला इसी में है कि तू स्वतः ही सम्यक्त्व का-बारह प्रकार के श्रमरणोपासक धर्म का परित्याग कर दे, अन्यथा मैं तेरे इन जलपोतों को दो अंगलियों से उठा कर आकाश में बहत ऊपर ले जा कर इस अथाह समुद्र में डुबो दूगा, जिसके परिणाम स्वरूप तू घोर आर्तध्यान करता हुआ अकाल में ही काल का कवल बन जायगा । श्रमणोपासक अरहन्नक को पूर्ववत् निश्चल और निर्भय रूपेण ध्यानमग्न देख उस पिशाच ने और भी अधिक तीव्र क्रोध और आक्रोशपूर्ण कड़कते हए स्वर में अपने उक्त कथन को दूसरी बार दोहराया। इस पर भी अरहन्नक धीर, गम्भीर और निर्भय बना रहा । उसने मन ही मन उस पिशाच को सम्बोधित करते हुए कहा- “हे देवानुप्रिय ! मैं अरहनक नामक श्रमणोपासक हं । मैंने जीव अजीव आदि तत्वों का सम्यग्ज्ञान समीचीनतया हृदयंगम कर उस पर अटूट श्रद्धा और अविचल आस्था की है । मुझे अपनी इस निर्ग्रन्थ प्रवचन की श्रद्धा से संसार की कोई भी शक्ति किंचिन्मात्र भी क्षभित, स्खलित अथवा विचलित नहीं कर सकती । इसलिए हे देव ! तुम जो कुछ भी करना चाहते हो, वह सब कुछ कर लो, मैं अपनी श्रद्धा का, आस्था का, सम्यक्त्व अथवा बारह प्रकार के श्रमणोपासक धर्म का लेश मात्र भी परित्याग नहीं करूंगा।" अरहन्नक को उसी प्रकार अनुद्विग्न, अविकम्प, अविचल, निर्भय और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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