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युगल की भेंट ]
भ० श्री मल्लिनाथ
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एक दिन उन सब पोतवरिणकों ने विचार विनिमय के पश्चात् समुद्र पार के सुदूरस्थ देशों से व्यापार करने का निश्चय किया । तदनुसार गरिणम अर्थात् गिनती पूर्वक क्रय-विक्रय करने योग्य नारियल, सुपारी आदि धरिम- प्रर्थात् तुला पर तोल कर क्रय-विक्रय करने योग्य सस्यादि मेय अर्थात् - पल, सेतिका प्रादि के परिमाण से व्यवहृत होने योग्य और परिच्छेय अर्थात् गुरणों की परीक्षा के द्वारा क्रय-विक्रय किये जाने योग्य मरिण, रत्न, वस्त्र आदि इन चार प्रकार के कारकों की वस्तुओं से दो विशाल जलपोतों (जहाजों) को भर कर उन्होंने शुभ मुहूर्त में समुद्री यात्रा प्रारम्भ की। समुद्र यात्रा करने का, अंग नरेश का प्रदेश-पत्र उनके साथ था । अनेक प्रकार के क्रयारकों, भोजन सामग्री, सेवकों, पोतरक्षकों एवं पोत- वरिणकों से भरे दोनों जलपोत समुद्र में मिलती वेगवती नदियों की तीव्र धाराओं पर तैरते, उदधि की उत्ताल तरंगों से जूझते हुए ससुद्र के वक्षस्थल को चीरते हुए समुद्र में बहुत दूर निकल गये ।
जलपोतों के ऊपर बाँधे गये सुदृढ़ श्वेत वस्त्र के पालों में निरन्तर अवरुद्ध होती हुई वायु के वेग से द्रुत गति पकड़े हुए दोनों जलपोत कुछ ही दिनों में समुद्र के अन्दर सैकड़ों योजनों की दूरी पर पहुंच गये, चारों ओर कल्लोलित सागर की लोल लहरें और छोर विहीन जलराशि के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं हो रही थी । उस समय आकाश में अनेक प्रकार के उत्पात होने लगे । सहसा पोतवरिकों ने देखा कि कज्जलगिरि के समान काला और प्रति विशाल एक पिशाच घनघटा की तरह गर्जन, अट्टहास और कराल भैरव की तरह नृत्य करता हुआ उनके जहाजों की ओर बढ़ा चला आ रहा है । उसकी जंघाएँ सात-आठ ताल वृक्षों, जितनी लम्बी-लम्बी, वक्षस्थल कज्जल के गिरिराज की प्रति विशाल शिला के समान विस्तीर्ण एवं भयानक, कपोल और मुख गहरे गड्ढे की तरह भीतर घुसे हुए, नाक छोटी, चिपटी और बैठी हुई आँखें खद्योत की चमक के समान लाल-लाल, ओष्ठ बड़े-बड़े और लटके हुए, चौके के चारों दाँत हस्ति दंत के समान बाहर निकले हुए, जिह्वा लम्बी-लम्बी और लपलपाती हुई, भौंहें प्रति वक्र तनी हुई और भयावनी, नख सूप के समान, कान ऊपर चोटी तक ऊंचे उठे हुए और नीचे दोनों स्कन्धों तक लटकते हुए थे । वह नरमुण्डों की माला धारण किये हुए था। उसके कानों में कर्णपूरों के स्थान पर दो भयंकर काले नाग फनों को उठाये हुए थे । उसने अपने दोनों स्कन्धों पर मार्जारों और शृगालों को और शिर पर घू-घू की घोर ध्वनि करने वाले उल्लुनों को बैठा रखा था । उसकी दोनों भुजाओं में रुधिर से रंजित हस्तिचर्म लिपटे हुए थे। हाथ में दुधारा विकराल खड्ग धारण किये हुए अपने गले में बँधे घंटों का घोर-रव करता हुआ जलपोतों की ओर आकाश से उतर रहा था ।
इस प्रकार के भीषण कालतुल्य पिशाच को देख कर अरहन्नक को छोड़ शेष सभी पोतवfरक भयभीत हो थर-थर काँपते हुए एक-दूसरे से चिपट गये ।
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