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युगल की भेंट] भगवान् श्री मल्लिनाथ
२६७ तदनन्तर महाराज कुम्भ ने अरहन्नक प्रमुख पोतवरिणकों को प्रीतिदान में विपुल वस्त्र, गन्ध, अलंकारादि प्रदान किये और उन्हें अच्छी तरह सत्कार सम्मानपूर्वक विदा किया। उन पोतवरिणकों ने अपने साथ लाये हुए क्रयापकों का मिथिला में विक्रय किया और वहां से विभिन्न प्रकार के आवश्यक क्रयारणक का क्रय कर उनसे अपने गाड़ों को भर उसी गंभीरी पोतपत्तन की ओर प्रस्थान किया जहां कि उनके जलपोत थे । मिथिला से क्रीत क्रयारणक को उन्होंने उन दोनों पोतों में भरा और समद्री यात्रा करते हुए, एक दिन उनके जलपोत चम्पा नगरी के पास पोतपत्तन में पहुंचे। उन्होंने जलपोतों को पोतपत्तन पर ठहराया और लंगर लगा दिये। वहां उन्होंने अपने साथ राजा को भेंट करने योग्य अनेक वस्तुओं के साथ वह शेष दिव्य कुण्डलों की जोड़ी ली और वे चम्पा के राजप्रासाद में अंगाधिप चन्द्रच्छाग की सेवा में उपस्थित हुए। अरहन्नक ने प्रणामादि के पश्चात् वह दिव्य कुण्डल युगल और अनेक बहुमूल्य वस्तुएं महाराज चन्द्रच्छाग को उपहारस्वरूप भेंट की।
चम्पा नरेश चन्द्रच्छाग ने भेंट स्वीकार करते हुए अरहन्नक से पूछा"समुद्र यात्रा करते हुए आप लोग अनेक द्वीपों, देश देशान्तरों में व्यापार करते रहते, क्या आपने कहीं कोई आश्चर्यकारी दृश्य, वृत्त अथवा वस्तु देखी है ?"
अरहन्नक श्रमणोपासक ने कहा-"महाराज ! यों तो विदेशों में, देशदेशान्तरों, राज्यों और राजधानियों में व्यापार करते हुए छोटे-बड़े अनेक प्रकार के पाश्चर्य देखते ही रहते हैं, किन्तु इस बार हमने मिथिला के राजप्रासाद में एक अदृष्टपूर्व पाश्चर्य देखा । इस बार हम अनेक प्रकार की वस्तुओं से गाडे भर कर मिथिला नगरी में गये । वहां हम मिथिलेश महाराज कुम्भ की सेवा में एक दिव्य कुण्डल युगल और बहुत सी बहुमूल्य वस्तुएं ले कर पहुंचे । हमने उन वस्तुओं के साथ कुण्डल महाराज कुम्भ को भेंट किये । उन्होंने उसी समय विदेहराज पुत्री मल्ली को बुलाया और उनके कानों में वे दिव्य कुण्डल पहना दिये । उस समय हमने कुम्भ राजा के राजप्रासाद में विदेह की राजकुमारी मल्ली को संसार के सर्वोत्कृष्ट पाश्चर्य के रूप में देखा । जैसी सुन्दर, रूप लावण्य सम्पन्ना महाराज कुम्भ की कन्या, महारानी प्रभावती की पात्मजा विदेह राजकुमारी मल्ली हैं, उस प्रकार की तो क्या उसके अंगुष्ठ के शतांश भाग से तुलना करने वाली कोई मानव कन्या तो क्या देवकन्या भी नहीं हो सकती।"
तदनन्तर महाराज चन्द्रछाग ने उन पोतवरिणकों का सत्कार-सम्मान कर उन्हें आदर सहित विदा किया । अरहन्नक के मुख से भगवती मल्ली के रूप का परमाश्चर्यकारी विवरण सुन कर उसके हृदय में मल्ली को प्राप्त करने की उत्कण्ठा जाग्रत हुई। उसने दौत्यकार्य में अतीव कुशल अपने दूताग्रणी को बुला कर आदेश दिया- "देवानुप्रिय ! तुम मिथिला नगरी के महाराजा कुम्भ
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