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और शिक्षा]
प्रथम चक्रवर्ती भरत
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प्रकार की अद्भुत औषधियां, राज्याभिषेक योग्य पुष्पमाला, गोशीर्ष चन्दन, अनेक प्रकार के रत्न, आभरण, अलंकार एवं पद्मद्रह का पानी, शर आदि लेकर उत्कृष्ट देवगति से तत्काल भरत की सेवा में उपस्थित हुप्रा और हाथ जोड़कर निवेदन करने लगा-"देवानुप्रिय ! आपने चुल्ल हिमवन्त वर्षधर पर्यन्त उत्तर दिशा पर विजय प्राप्त की है। मैं आपके देश में रहने वाला प्रापका प्राज्ञाकारी किंकर एवं आपके राज्य की उत्तर दिशा का अंतपाल देव हूं । आपको प्रीतिदान स्वरूप भेंट करने के लिये यह सामग्री लाया हूं, इसे आप स्वीकार करें।"
भरत ने चल्लहिमवन्तगिरि कुमार देव द्वारा की गई भेंट को स्वीकार कर देव का सत्कार सम्मान किया और तदनन्तर उसे विदा किया।
उसी समय भरत ने अपने रथ को पीछे की ओर घुमाया और वे ऋषभकूट पर्वत के पास आये । उन्होंने अपने रथ से ऋषभकूट पर्वत का तीन बार स्पर्श किया। तत्पश्चात् रथ को रोककर उन्होंने अपने काकिरणी रत्न से ऋषभकूट पर्वत के पूर्व दिशा की ओर के कड़खे अर्थात् पार्श्व के गगनचुम्बी शिलापट्ट पर निम्नलिखित अभिलेख लिखा :
___ "इस अवसर्पिणी के तीसरे आरे के पश्चिम विभाग में भरत नाम का चक्रवर्ती हूं । मैं भरतक्षेत्र का अधिपति प्रथम राजा एवं नरवरेन्द्र हूं। मेरा कोई प्रतिशत्र नहीं है । मैंने इस भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है।"
इस अभिलेख के आलेखन के पश्चात् भरत अपने विजयी सैन्य के स्कन्धावार में अपनी उपस्थान शाला में आये । स्नानादि के पश्चात् भरत ने अपने सातवें अष्टमभक्त तप का पारण किया और भोजनशाला से उपस्थान शाला में पा राजसिंहासन पर बैठ अठारह श्रेणि-प्रश्रेणियों के लोगों को बलाया। अपनी प्रजा को कर आदि से मुक्त कर चुल्ल हिमवन्त गिरि कुमार देव का अष्टाह्निक महोत्सव मनाने का आदेश दिया।
__ अष्टाह्निक महोत्सव के अवसान पर चक्ररत्न आकाशमार्ग से दक्षिण दिशा में वैताढ्य पर्वत की ओर प्रस्थित हया। चक्ररत्न का अनुसरण करते हए भरत अपनी सेना के साथ वैताढय पर्वत के उत्तरी नितम्ब में पहुंचे। वहां बारह योजन लम्बे व नव योजन चौड़े स्कन्धावार में सेना ने पड़ाव डाला । वाद्धिक रत्न द्वारा निर्मित पौषधशाला में प्रवेश करने से पूर्व भरत ने पुष्पादि सभी प्रकार की संचित्त वस्तुओं, आभरणों, अलंकारों एवं आयुधों आदि का परित्याग किया। तदनन्तर पौषधशाला में एक स्थान को प्रमाजित कर वहां दर्भ का आसन बिछाया। उस दर्भासन पर बैठकर महाराज भरत ने नमी एवं विनमी नामक विद्याधर राजाओं को साधने के लिये अष्टम भक्त तप और
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