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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन पर्यन्त सिन्धु नदी के दूसरे खण्ड के सम अथवा विषम आदि सभी क्षेत्रों को जीत कर उनमें चक्रवर्ती की अखण्ड आज्ञा पालन करने का तथा उन क्षेत्रों के शासकों से भेंट प्राप्त करने का आदेश दिया। महाराज भरत की आज्ञा को शिरोधार्य कर सेनापति ने चक्रवर्ती की चतुरंगिणी सेना को ले विजय अभियान प्रारम्भ किया। कुछ ही समय पश्चात् उन सभी क्षेत्रों को चक्रवर्ती भरत के विशाल राज्य में मिला, उन क्षेत्रों पर भरत की विजय पताका फहरा दी। उन क्षेत्रों के सभी शासकों से भरत के लिये भेंट प्राप्त कर सेनापति रत्न अपनी सेना के साथ भरत महाराज की सेवा में लौटा और उनके समक्ष भेंट में प्राप्त विपुल बहुमूल्य रत्नाभरणादि सामग्री प्रस्तुत कर सांजलि शीश झका निवेदन किया"देव ! आपके प्रताप से सिन्धु नदी के दूसरे लघु खंड के सम्पूर्ण भूभाग के समस्त शासकों ने आपकी अधीनता स्वीकार करते हुए आपको अपना स्वामी और स्वयं को आपके आज्ञापालक सेवक मानते हुए आपके लिये भेंट स्वरूप यह विपुल बहुमूल्य सामग्री भेजी है।" महाराज भरत सेनापतिरत्न की बात सुनकर हृष्ट-तुष्ट हुए। उन्होंने सेनापति को सम्मानित किया। कतिपय दिनों तक महाराज भरत अनेक प्रकार के सुखोपभोगों का उपभुजन करते हुए सेना के साथ वहीं रहे। एक दिन वह चक्ररत्न प्रायधशाला से बाहर निकला और आकाश मार्ग से ईशान कोण में चुल्लहिमवंत पर्वत की ओर अग्रसर हुआ । चतुरंगिणी सेना के साथ भरत भी चक्ररत्न का अनुगमन करते हुए चुल्लहिमवन्त पर्वत के पास पहुंचे। वहां वाद्धिक रत्न ने सेना के लिये १२ योजन लम्बा और ६ योजन चौड़ा स्कन्धावार एवं महाराज भरत के लिये विशाल प्रासाद एवं पौषधशाला का निर्माण किया। सेना ने स्कन्धावार में विश्राम किया और महाराज भरत ने पौषधशाला में दर्भासन पर बैठ चुल्ल हिमवन्त कुमार देव की साधना के लिये पौषधसहित अष्टमभक्त तप किया । षट्खण्ड की साधना हेतु भरत का यह सातवां अष्टमभक्त तप था । अष्टमभक्त की तपस्या के सम्पन्न होने पर भरत अश्वरथ पर पारूढ़ हो सेना सहित चुल्ल हिमवन्त पर्वत के पास आये । उन्होंने वहां अपने रथ से चुल्लहिमवन्त पर्वत का तीन बार स्पर्श किया । तदनन्तर रथ को रोका । अपने धनुष पर शर का संधान किया और मागध तीर्थ के अधिपति देव की साधना के समय जिस प्रकार के वाक्य कहे थे उसी प्रकार के वाक्यों का उच्चारण करने के पश्चात् अपना बाण छोड़ा। वह बारण बहत्तर योजन ऊपर जाकर चुल्लहिमवन्तगिरि कुमार देव के भवन में गिरा । अपनी सीमा में गिरे बारण को देखकर पहले तो बड़ा क्रुद्ध हुआ किन्तु बाण पर भरत का नाम देख अवधिज्ञान द्वारा वस्तुस्थिति से अवगत होने के अनन्तर भरत को भेंट करने के लिये सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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