SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और शिक्षा ] प्रथम चक्रवर्ती भरत इसके उपरान्त भी तुम लोगों की प्रीति के कारण हमने उनके समक्ष उपसर्ग प्रस्तुत किया । उस घोर उपसर्ग से उनका किसी प्रकार का किंचिन्मात्र भी अप्रिय नहीं हुआ । अतः अब तुम लोग स्नानादि से निवृत्त हो भीगे हुए वस्त्र धारण किये हुए बालों को खुले रखकर अनेक प्रकार के बहुमूल्य रत्नाभरणादि की विपुल भेंट लेकर उनकी शरण में जाओ। उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करो और शीघ्रातिशीघ्र उनका आधिपत्य स्वीकार करो । वे महामना महान् उदार और शरणागतवत्सल हैं, उनकी शरण ग्रहण करने पर तुम्हें उनसे अथवा अन्य किसी से किसी भी प्रकार का भय नहीं होगा ।" यह कहकर वे मेघमुख नामक नागकुमार देव अपने स्थान को लौट गये । अपने कुलदेवता के चले जाने के पश्चात् उन प्रपात किरातों ने उनके परामर्शानुसार स्नान किया, तलि मसादिक किये । भीगे वस्त्र धारण कर अपनी केशराशि को खुली रखकर विपुल वजू, मरिण, रत्नाभरणादि साथ लेकर भरत की शरण में गये । उन्होंने हाथ जोड़कर भरत महाराज को प्रणाम किया, उन्हें भेंट करने के लिये अपने साथ लाई हुई बहुमूल्य रत्नाभरणादि सामग्री को उनके समक्ष रख उन्होंने हाथ जोड़कर भरत से निवेदन करना प्रारम्भ किया- "हे हजार लक्षणों के धारक विजयी नरेन्द्र ! हम सब आपकी शरण में हैं । आपकी सदा जय हो, विजय हो । चिरकाल तक आप हमारे स्वामी रहें । आप चिरायु हों । पूर्व, पश्चिम और दक्षिण इन तीन दिशाओं में लवण समुद्रपर्यन्त उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवन्त पर्यन्त आपका एकछत्र राज्य है । उत्तरार्द्ध भरत और दक्षिणार्द्ध भरत - इन दोनों को मिलाकर सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर आपकी विजय वैजयन्ती फहराये, आपका एकच्छत्र शासन हो, आपकी प्रखण्ड प्रज्ञा प्रवर्तित रहे । हम लोग आपके देश में आपकी आज्ञा में रहने वाले आपके आज्ञाकारी सेवक हैं | आप हमारे स्वामी | हे क्षमाशील स्वामिन् ! आप हमारे अपराध को क्षमा करें । भविष्य में हम लोग इस प्रकार का अपराध कभी नहीं करेंगे ।" ६५ भरत की सेवा में इस प्रकार निवेदन करते हुए वे प्रापात चिलात हाथ जोड़कर भरत के चरणों में गिरे । उन्होंने भरत की अधीनता स्वीकार की और अपनी ओर से लाई हुई भेंट स्वीकार करने की उनसे प्रार्थना की। उन लोगों द्वारा समर्पित भेंट को स्वीकार करते हुए महामना भरत ने उनका सत्कारसम्मान कर यह कहते हुए उन्हें विदा किया - " अब तुम लोग अपने घर जाओ और मेरे आश्रय में सदा निर्भय हो सुखपूर्वक रहो ।" आपात किरातों को अपना प्राज्ञावर्ती बना, उन्हें विदा करने के पश्चात् महाराजा भरत ने अपने सेनापतिरत्न को बुलाकर पूर्व में सिन्धु, दक्षिण में वैताढ्य पर्वत, पश्चिम में लवण समुद्र और उत्तर में चुल्लहिमवंत पर्वत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy