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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ संवर्द्धन
करने को प्रवृत्त हुए । विजयिनी सेनापुर इस प्रकार की युग मूसल एवं मुष्टिद्वय प्रमाण जल धाराओं से बरसती हुई घोर वृष्टि को देखकर महाराजा भरत ने चर्मरत्न को हाथ में लिया । वह चर्मरत्न तत्काल बारह योजन विस्तार वाला बन गया । महाराज भरत तत्काल अपनी सेना के साथ उस चर्मरत्न पर आरूढ़ हो गये । तदनन्तर महाराज भरत ने दिव्य छत्ररत्न ग्रहण किया । वह छत्ररत्न तत्काल निन्यानवे हजार नव सौ स्वर्णमय ताड़ियों वाला निश्छिद्र, वर्तुलाकार, कमल की कणिका के समान आकार वाला अर्जुन नामक श्वेत स्वर्ण के वस्त्र से ढका हुआ, स्वर्णमय सुपुष्ट दण्ड वाला प्रत्यन्त सुन्दर मरियों एवं रत्नों से मंडित, ऋतु से विपरीत छाया वाला, एक सहस्र देवताओं द्वारा सेवित, साधिक बारह योजन विस्तार वाला छत्र बन गया । वह छत्ररत्न भरत चक्री द्वारा समस्त सेना पर छा दिया गया । तदनन्तर महाराज भरत ने अपने मणिरत्न को छत्र के मध्य में रख दिया । उस मणिरत्न के प्रभाव से बारह योजन की परिधि में दिन के समान प्रकाश हो गया । गाथापति रत्न उस चर्मरत्न पर सभी प्रकार के धान्य, वृक्ष, सभी प्रकार के मसाले, भाजियां, वनस्पति, आदि सभी आवश्यक वस्तुएं प्रतिदिन निष्पन्न करने लगा । इस प्रकार महाराज भरत सात रात्रि तक चर्मरत्न पर सुखपूर्वक रहे, उन्हें और उनकी सेना को किसी भी प्रकार की किचिन्मात्र भी असुविधा नहीं हुई । इस प्रकार सात अहोरात्र पूर्ण होने पर महाराज भरत के मन में इस प्रकार का संकल्प विकल्प उत्पन्न हुआ कि अनिष्ट मृत्यु की कामना करने वाला दुष्ट लक्षणों का निधान, निष्पुण्य, निर्लज्ज, निश्श्रीक कौन है जो पुण्य के प्रताप से समर्थ बने हुए एवं यहां पर आये हुए मेरे विजयी चतुरंग सैन्य एवं मुझ पर युगमूसल युगमुष्टि प्रमाण वर्षा सात अहोरात्र से निरन्तर बरसा रहा है ? महाराज भरत के इस प्रकार के मनोगत अध्यवसायों को जानकर उनके सान्निध्य में रहने वाले सोलह हजार ( १४ रत्नों के अधिष्ठायक १४ हजार और भरत की दोनों भुजाओं के अधिष्ठायक २ हजार) देव कवच, आयुध आदि से सुसज्जित हो मेघमुख नामक नागकुमारों के पास पहुँचे और उन्हें ललकारते हुए कहने लगे :- " अरे अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले यावत् ह्री-श्री परिवजित मेघमुख नामक नागकुमार देव ! तुम सात अहोरात्र से यह अविवेकपूर्ण अनर्थ कर रहे हो । अब यहां से इसी क्षण भाग जाम्रो अन्यथा हम तुम्हें मारेंगे ।"
यह सुनते ही वे मेघमुख नामक नागकुमार देव बड़े भयभीत एवं त्रस्त हुए । उन्होंने तत्काल मेघों का साहरण किया और वहां से तत्काल चले गये । उन्होंने प्रपात किरातों के पास जाकर कहा :- "हे देवानुप्रियी ! यह चक्रवर्ती सम्राट् भरत महान् ऋद्धिशाली हैं । कोई भी देव, दानव अथवा मानव इनका पराभव करने में अथवा पीड़ा पहुंचाने में समर्थ नहीं है । ये सर्वथा प्रजेय हैं ।
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