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________________ पौर शिक्षा] प्रथम चक्रवर्ती भरत ६३ प्रकार उर्ध्वमुख लेटे लेटे उन्होंने अपने कुल देवता मेघमुख नामक नागकुमार की पाराधना करना प्रारम्भ किया। जब उन आपात किरातों का सामूहिक अष्टमभक्त तप पूर्ण हया तो मेघमुख नामक नागकुमार देवों का आसन चलायमान हमा । अवधिज्ञान के उपयोग से उन नागकुमारों ने अपने आराधक आपात किरातों को उस दशा में देखा। उन्होंने अपने सब देवों को बुलाकर कहा"हे देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में आपात जाति के किरात सिन्धु नदी की रेती में रेती का संस्तारक बना, बिल्कुल नग्न हो उर्ध्वमूख पड़े हुए अपने कुल देवता मेघमुख नामक नागकुमारों का स्मरण कर रहे हैं । अतः हमें उन लोगों के पास जाना चाहिये।" इस प्रकार परस्पर मंत्रणा कर वे मेघमुख नामक नागकुमार देव उत्कृष्ट देवगति से उन आपात किरातों के पास आये। उन्होंने आकाश में ही खड़े रहकर आपात किरातों को सम्बोधित करते हुए कहा- "हे देवानुप्रिय ! तुम लोग इस दशा में जिनका स्मरण कर रहे हो, हम वे ही मेघमुख नामक नागकुमार और तुम्हारे कुल-देवता हैं । बोलो, हम तुम्हारा कौनसा प्रिय कार्य करें ?" अपने कुलदेव को प्रत्यक्ष देख एवं उनकी बात सुन आपात चिलात ' हृष्ट एवं तुष्ट हुए। अपने-अपने स्थान से उठकर सब उन मेघमुख नागकुमारों के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हुए और उनकी जय-विजय के घोष के साथ कहने लगे- "हे देवानुप्रिय ! मृत्यु की कामना करने वाला कोई निर्लज्ज, दुष्ट हमारे देश पर आक्रमण कर हमारी स्वतन्त्रता छीनने आया है। इसलिये आप उस आततायी को मारो, उसकी सैन्य-शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दशों दिशाओं में भगा दो, जिससे कि वह फिर कभी हमारे देश पर आक्रमण करने का साहस न कर सके।" उन पापात किरातों की बात सुनकर मेघमख नागकुमार ने कहा-"हे देवानुप्रियो ! वास्तविकता यह है कि यह भरत राजा चक्रवर्ती सम्राट है, कोई भी देव, दानव, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गन्धर्व शस्त्र प्रयोग अग्निप्रयोग अथवा मन्त्रप्रयोग से उनको न तो पीड़ित करने में समर्थ है और न उनका पराभव करने में ही। तथापि तुम लोगों की प्रीति के कारण हम भरत राजा को उपसर्ग उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं।" आपात किरातों को इस प्रकार का प्राश्वासन देकर मेघमुख नागकुमारों ने वैक्रिय समुद्घात से मेघ का वैक्रिय किया और भरतराजा के शैन्य शिविर पर घनघोर मेघ घटा से घोर गर्जन एवं भीषण कड़क सहित मसलद्वय अथवा मुष्टिद्वय प्रमाण जल धाराओं से निरन्तर सात दिन तक उत्कृष्ट गति से वर्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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