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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ वसुदेव का एक दिन वसुदेव उपवनों से घूमकर राजप्रासाद में लौटे ही थे कि समुद्रविजय ने उन्हें बड़े दुलार से कहा - " कुमार ! तुम इस प्रकार दिन में बाहर मत घूमा करो, तुम्हारा सुकुमार मुख धूलिधूसरित और कुम्हलाया सा दिख रहा है । घर में ही रहकर सीखी हुई कलाओं का अभ्यास किया करो -कहीं तुम उन कलानों को भूल न जाओ ।" ३३४ वसुदेव ने सहज विनयभाव से कहा - "ऐसा ही करूंगा महाराज और उस दिन से वसुदेव राजप्रासाद में ही रहने लगे । एक दिन समुद्रविजय के लिए विलेपन तैयार करती हुई कुब्जा दासी से वसुदेव ने पूछा - "यह उबटन किसके लिये तैयार कर रही हो ?" दासी का छोटा सा उत्तर था - "महाराज के लिए ।" "क्या यह मेरे लिये नहीं है ?" वसुदेव के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए दासी ने कहा - " कुमार प्रापने अपराध किया है, अत: महाराज आपको उत्तम वस्त्राभूषण विलेपनादि नहीं देते ।" | " जब वसुदेव ने दासी द्वारा मना किये जाने पर भी बलात् विलेपन ले लिया तो दासी ने तुनक कर कहा - " इस प्रकार के आचरणों के कारण ही तो राजप्रासादों में अवरुद्ध किये गये हो, फिर भी अविनय से बाज नहीं आते ।" वसुदेव ने चौकन्ने होकर प्राग्रहपूर्वक दासी से पूछा - "अरी ! कौनसा अपराध हो गया है, जिससे कि महाराज ने मुझे प्रासाद में ही रोक रखा है ?"" दासी ने कहा कि इस रहस्य के उद्घाटन से उसे राजा समुद्रविजय द्वारा पण्डित होने का डर है । वसुदेव ने प्रेमपूर्ण संभाषरण से दासी को प्राखिर प्रसन्न कर लिया और उसने वसुदेव से कहा - "सुनिये कुमार! एक बार प्रापकी अनुपस्थिति में नगर के अनेक प्रतिष्ठित नागरिकों ने महाराज के सम्मुख उपस्थित हो निवेदन किया कि शरद पूर्णिमा के चन्द्र के समान मानव मात्र के नयनों को आह्लादित करने वाले विशुद्ध-निर्मल चरित्रवान् छोटे राजकुमार नगर में जिस किसी स्थान से निकलते हैं, तो वहाँ का नवयुवति वर्ग कुमार के अलौकिक सौन्दर्य पर मुग्ध हो उनके पीछे-पीछे मन्त्रमुग्धा हिरणियों के झुण्ड की तरह परिभ्रमण करता रहता है। कुमार अब इस पथ से निकलेंगे, इस १ वसुदेव हिण्डी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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