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भगवान् श्री पारष्टनेमि
३३३ वसुदेव ने समुद्रविजय की बात शिरोधार्य करते हुए कहा-"सिंहरथ को बन्दी बनाने में कंस ने साहसपूर्ण कार्य किया है, अतः उसके पारितोषिक रूप में जीवयशा का कंस के साथ पाणिग्रहण करा देना चाहिये।"
समुद्रविजय द्वारा यह प्रश्न किये जाने पर कि एक उच्च कुल के राजाधिराज की कन्या एक रसवणिक के पुत्र से कैसे ब्याही जा सकेगी;-वसुदेव ने कहा-“महाराज ! क्षत्रियोचित साहस को देखते हुए कंस क्षत्रिय होना चाहिए न कि रसवणिक ।" वास्तविकता का पता लगाने हेतु रसवणिक को बुलाकर पूछा गया।
रसवणिक ने कहा-“महाराज ! यह मेरा पुत्र नहीं है, मैंने तो यमुना में बहती हुई कांस्य-पेटिका से इसे प्राप्त किया है। तामसिक स्वभाव के कारण बड़ा होने पर यह बालकों को मारता-पीटता था। इसलिये इससे ऊबकर मैंने इसे कुमार की सेवा में रख दिया। कांसी की पेटी ही इसकी माँ है और इसीलिए इसका नाम कंस रखा गया है। इसके साथ पेटी में यह नामांकित मुद्रिका भी प्राप्त हुई थी, जो सेवा में प्रस्तुत है।"
मुद्रिका पर महाराज उग्रसेन का नाम देखकर समुद्रविजय को बड़ा आश्चर्य हुमा । वे सिंहरथ मोर कंस को लेकर जरासंध के पास पहुंचे और बन्दी सिंहरथ को जरासंध के समक्ष उपस्थित करते हुए उन्होंने कंस के पराक्रम की प्रशंसा की और बताया कि यह कंस महाराज उग्रसेन का पुत्र है। यह सब सुनकर जरासंध बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने अपनी पुत्री जीवयशा का कंस के साथ विवाह कर दिया।
अपने पिता द्वारा नदी में बहा दिये जाने की बात सुन कंस पहले ही अपने पिता से बदला लेने पर तुला हुमा था। जरासंध का जामाता बनते ही उसने जरासंध से मथुरा का राज्य मांग लिया और मथुरा में पाकर देषवश्व उग्रसेन को कारागृह में डालकर वह मथुरा का राज्य करने लगा।'
___X बसुदेव का सम्मोहक पत्तिय युवावस्था प्राप्त करते ही वसुदेव श्वेत परिधान पहने जातिमान् चंचल अश्व पर मारूढ़ हो एक उपवन से दूसरे उपवन में, इस वन से उस बन में प्रकृति की छटा का प्रानन्द लूटने लये। नयनाभिराम बसुदेव को राजपथ से माते-जाते देखकर नागरिक बन उनके अलौकिक सौन्दर्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते और महिलाएं तो उनकी कमनीय कान्ति पर मुग्ध हो उन्हें एकटक निहारती हुई मन्त्र-मुग्ध हरिणियों की तरह सुध-बुध भूले उनके पीछे-पीछे चलने लगतीं । इस प्रकार हंसी-खुशी के साथ उनका समय बीतने लगा। १ बसुदेव हिन्दी।
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