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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० ऋषभदेव का विवाह
तीर्थेशो जगतां गुरुः क्रमशः प्रभू ने किशोर वय में प्रवेश किया। उस समय उनको देखते ही दर्शक को ऐसा प्रतीत होता कि मानो सम्पूर्ण संसार का समस्त सौन्दर्य एकत्र पुंजीभूत हो प्रभु के रूप में प्रकट हो गया है । सभी तीर्थंकर महाप्रभु गर्भागमन से पूर्व च्यवन काल से ही मति, श्रुत और अवधि ज्ञान-इन तीन ज्ञान के धारक होते हैं। भगवान् ऋषभदेव भी सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यवन के समय से ही मति, श्रुत और अवधि - इन तीनों ज्ञान के धारक थे। उन्हें जातिस्मरण ज्ञान से अपने पूर्व जन्मों का भी सम्यक् परिज्ञान था।' इसीलिये उन्हें किसी कलागुरु अथवा कलाचार्य के पास शिक्षा ग्रहगा करने की आवश्यकता नहीं थी। वे तो स्वयं ही समस्त विद्याओं के निधान और निखिल कलाओं के पारगामी जगद्गुरु थे।
भगवान् ऋषभदेव का विवाह समय की गति के साथ बढ़ते हुए कुमार ऋषभ ने शैशव से किशोर वय में और किशोर वय से यौवन की देहली पर पैर रखा। सतत साधना-पूर्ण अपने पूर्व जन्म में उन्होंने जो ज्ञान का अक्षय भण्डार संचित कर लिया था, वह उन्हें इस भव हेतु गर्भ में प्रागमन के समय से ही प्राप्त था। उन्होंने तत्कालीन घटनाचक्र और लोक-व्यवहार से समयोचित नूतन अनुभवों को हृदयंगम कर लोक-व्यवहार में पूर्ण प्रवीणता प्राप्त करली ।
जब इन्द्र ने देखा कि अब कुमार ऋषभ भोगसमर्थ युवावस्था एवं विवाह योग्य वय में प्रविष्ट हो गये हैं, तो उन्होंने कुमार ऋषभ का विवाह करने का निश्चय किया। लावण्य सम्पन्ना सुभंगला और सुनन्दा के साथ नाभिराज के परामर्श से देव-देवियों से युक्त शकेन्द्र ने ऋषभकुमार का विवाह सम्पन्न किया। उस समय के मानवों के लिये विवाह कार्य पूर्णतः नवीन था। विवाह कार्य किस प्रकार सम्पन्न किया जाय, कैसे क्या किया जाय, इस विधि से तत्कालीन नरनारी नितान्त अनभिज्ञ थे । अतः इन्द्र और इन्द्राणियों ने ही विवाह सम्बन्धी सब कार्य अपने हाथों सम्हाला । वरपक्ष का कार्य स्वयं देवराज शक्र ने और वधु-पक्ष का कार्य शक्र की अग्रमहिषियों ने बड़े हर्षोल्लास से विधिवत् सम्पन्न किया। इससे पूर्व उस समय के मानव समाज में ऐसी कोई वैवाहिक प्रथा प्रचलित नहीं थी। ऋषभदेव के विवाह से पूर्व यौगलिक काल में, नर-नारी शिशु युगल एक माता की कुक्षि से एक साथ जन्म ग्रहण करता और कालान्तर में युवावस्था में प्रवेश करने पर उस मिथुन का जीवन - सम्बन्ध पति-पत्नी के रूप में
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१ आवश्यक म० १८६, २ भोग समत्थं नाउं, वरकम्मं तस्स कासि देविन्दो ।
दोण्हं वरमहिलाणं, बहुकम्मं कासि देवीतो ।।१६१।।
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