SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५ भोग भूमि कर्म० का संधिकाल] भगवान् ऋषभदेव परिवर्तित हो जाया करता था। सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव ने ही भावी मानव-समाज के हित की दृष्टि से विवाह परम्परा का सूत्रपात किया। इस प्रकार उन्होंने मानव मन की बदलती हुई स्थिति और उससे उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों का अध्ययन कर कालप्रभाव से बढ़ती हुई विषय-वासना को विवाह सम्बन्ध से सीमित कर मानव जाति को वासना की भट्टी में गिरने से बचाया। अपने युग की इस नितान्त नवीन और सबसे पहली विवाह-प्रणाली को देखने के लिये योगलिक नर-नारियों के विशाल झुण्ड कुलकर नाभि के भवन की अोर उमड़ पड़े। महाराज नाभि ने और प्रजा ने बड़े हर्षोल्लास के साथ प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल के इस प्रथम विवाह के उपलक्ष में अनेक दिनों तक आनन्दोत्सव मनाया। जनमानस में मानन्द सागर की उमड़ती उर्मियों से समस्त वातावरण आनन्द से ओतप्रोत हो गया। भली-भांति सजाई संवारी हुई विनीता नगरी अलका सी प्रतीत होने लगी। संसार के निखिल सौन्दर्य, सुषमा, कीर्ति और कान्ति के सर्वोच्च कीर्तिमान वरराज ऋषभकुमार, इन्द्रारियों द्वारा दिव्य वस्त्राभरणों एवं अलंकारों से सजाई-संवारी गई उन दोनों सुमंगला और सुनन्दा नववधुओं के साथ ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों संसार का पंजीभत सौन्दर्य साक्षात सदेहा श्री और कीतिदेवी के साथ विराजमान हो। दो नववधुओं के साथ वरवेष में सजे अपने पुत्र ऋषभ को देख-देख माता मरुदेवी बार-बार बलैयां लेने लगीं, पिता नाभि पुलकित हो उठे और स-सुरासुर-गन्धर्व-किन्नर-नर-नारियों का मानन्द-सागर वेलाओं को लांघ-लांघ कर कल्लोलें करने लगा। विवाहोपरान्त ऋषभकुमार देवी सुमंगला और सुनन्दा के साथ उत्तम मानवीय इन्द्रिय-सुखों का उपभोग करने लगे। भोगमूमि और कर्मभूमि का संधिकाल । यों तो इस अवसपिरणी काल के प्रथम कुलकर के समय से ही काल करवट बदलने के लिये अंगड़ाइयां लेने लगा था, प्रकृति के चरण परिवर्तन की ओर प्रवत्त होने के लिये खम-खमाने लग गये थे, सभी प्रकार के प्रभाव अभियोगों से पूर्णतः विमुक्त और प्रकृति मां के शान्त सुखद-सुन्दर कोड़ में परमोत्कृष्ट वात्सल्यपूर्ण मादक माधुर्य में अनेक सागरों की सुदीर्घावधि तक विमुग्ध रहे हुए प्रकृति-पुत्र , यौगलिकों की चिरशान्त हत्तन्त्रियों के तार यदा-कदा थोड़ा-थोड़ा प्रकम्पन अनुभव करते-करते क्रमशः झन्झनाने भी लगे थे। जब भोग भूमि के अन्त और कर्मभूमि के उदय का संधिकाल समीप आया तो प्रकृति ने परिवर्तन की ओर चरण बढ़ाया और काल ने एक करवट ली। कालप्रभाव से कल्पवृक्ष क्रमश: विरल और क्षीण हो गये, नाम मात्र को अवशिष्ट रह गये। यौगलिक काल में-भोगभूमि के समय में चिरकाल से कल्पवक्षों पर प्राश्रित रहता पाया मानव कल्पवृक्षों के नष्टप्रायः हो जाने पर भूख से पीड़ित हो त्राहि-त्राहि कर उठा । भूख से संत्रस्त लोग नाभि कुलकर के पास आये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy