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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पन्द्रहवें कुलकर के रूप में और उन्हें अपनी दयनीय स्थिति से अवगत करवाया । कुलकर नाभि ने अपने पुत्र ऋषभ कुमार से परामर्श लिया। वे अपने पुत्र के अलौकिक गुणों और बुद्धिकौशल से भली-भांति परिचित थे। उन्होंने अपने पुत्र को कहा कि वे संकटग्रस्त मानवता का मार्गदर्शन करें।
पन्द्रहवें कुलकर के रूप में तीन ज्ञान के धनी कुमार ऋषभदेव ने लोगों को आश्वस्त करते हुए कहा - "अवशिष्ट कल्पवृक्षों के फलों के अतिरिक्त स्वत: ही वन में उगे हुए शाली आदि अन्न से अपनी भूख की ज्वालानों को शान्त करो, इक्षरस का पान करो। इन शाली आदि स्वतः ही उगे हुए धान्यों से तम्हारा जीवन निर्वाह हो जायगा। इनके अतिरिक्त वनों में अनेक प्रकार के कन्द, मूल, फल, फूल, पत्र प्रादि हैं, उनका भी भक्षण किया जा सकता है। इस प्रकार तुम्हारी क्षुधा शान्त होगी।" १५वें कुलकर के रूप में तत्कालीन भूखी मानवता का मार्गदर्शन करते हुए कुमार ऋषभ ने उन लोगों को खाने योग्य फलों, फूलों, कन्द-मूल और पत्तों का भली भांति परिचय कराया । भूख से पीड़ित उन लोगों ने प्रभू द्वारा निर्दिष्ट कन्द, मूल फल, फल, पत्र एवं कच्चे शाल्यन्नादि से अपनी भूख को शान्त कर सख की श्वास ली। अब वे लोग शाल्यन्न, ब्रीही और जंगलों में स्वतः ही उगे हए अनेक प्रकार के धान्यादि तथा कन्द, मूल, फल, पुष्प, पत्रादि से अपना जीवनयापन करने लगे।' इस प्रकार अपनी भूख की ज्वाला को शान्त कर वे लोग प्रभु ऋषभदेव को ही अपनी कामनाओं को पूर्ण करने वाला कल्पवृक्ष समझने लगे।
___ यद्यपि वे लोग प्रभृ ऋषभ के निर्देशानुसार अधिकांशतः कन्द, मूल, फल, फूल ग्रादि का दी भक्षण करते, कच्चे धान्यों का बहत स्वल्प मात्रा में ही उपभोग करते थे, तथापि छिलके सहित कच्चे अन्न के खाने से कतिपय लोगों को अपच और उदर की पीड़ा भी सताने लगी। उदर पीड़ा की इस अश्रुतपूर्व नई दुविधा के समाधान के लिये वे लोग पुनः प्रभु की सेवा में उपस्थित हुए। प्रभु ऋषभकुमार ने उनकी समस्या का समाधान करते हुए कहा- “शाली आदि धान्यों का छिलका हटा कर उन्हें हथेलियों में अच्छी तरह मसल-मसल कर खाओ, कम मात्रा में खाओ, इससे उदर-पीड़ा अथवा अपच आदि की व्याधि नहीं होगी।"
१ प्रासी कंदाहारा, मूलाहारा य पत्तहारा य ।
पुप्फ-फल भोइणो वि य, जइया किर कुलगरो उसहो ।। ओमप्पाहारंता, अजीरमाणम्मि ते जिरणमुर्वेति । (अवममप्याहरंतः) हत्थेहि घंसिऊरणं, पाहारेहति ते भणिया ॥३८।। पासी य पारिणघंसी, तिम्मिप्र तंदुलपवालपुड़भोई । हत्थतलपुडाहारा, जइबा किर कुलगरो उसभो ॥३९॥
-प्रावश्यक भाष्य
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