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________________ पन्द्रहवें कुलकर के रूप में ] भगवान् ऋषभदेव प्रभु के निर्देशानुसार उन्होंने वनों में स्वतः ही उत्पन्न हुए धान्यों के छिलकों को हटा, हथेली में खूब मसल मसल कर खाना प्रारम्भ किया, और इस प्रकार उनका सुखपूर्वक निर्वाह होने लगा । धान्य कच्चे रहे, तब तक उन्हें अपच अथवा उदरशूल की किसी प्रकार की व्याधि नहीं हुई । किन्तु जब धान्य पूरी तरह पक गये तो उन्हें पुनः उसी प्रकार की अपच आदि की व्यावि से पीड़ा होने लगी । इस पर उन लोगों ने पुनः प्रभु की सेवा में उपस्थित हो उनके समक्ष अपनी समस्या रखी । प्रभु ने उनका मार्गदर्शन करते हुए कहा - "इस पके हुए अन्न को पहले जल में भिगोत्रो, थोड़ा भीग जाने पर इसे मुट्ठी में बंद रख कर अथवा बगल में रख कर गरम कर के खाओ, इससे तुम्हें अपच आदि की बाधा उत्पन्न नहीं होगी ।" उन लोगों ने प्रभु के निर्देशानुसार अन्न को भिगो कर और मुट्ठी अथवा बगल में रख कर खाना प्रारम्भ किया । कुछ समय तक तो उनका कार्य अच्छी तरह चलता रहा किन्तु कच्चे धान्य के खाने से उन्हें पुनः अपच आदि की व्याधि सताने लगी । २७ कुमार ऋषभदेव अतिशय ज्ञानी होने के कारण अग्नि के विषय में जानते थे । वे यह भी जानते थे कि काल की एकान्त स्निग्धता के कारण अभी अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती, अतः कालान्तर में काल की स्निग्धता कम होने पर उन्होंने अररियों को घिस कर अग्नि उत्पन्न की और लोगों को पाक कला का ज्ञान कराया ।' चूरिणकार ने लिखा है कि संयोगवश एक दिन जंगल के बांस वृक्षों में वायु के वेग के कारण अनायास ही संघर्ष से ग्रग्नि उत्पन्न हो गई । इस प्रकार बांसों के घर्षण से उत्पन्न अग्नि भूमि पर गिरे सूखे पत्ते और घास को जलाने लगी । युगलियों ने उसे रत्न समझ कर ग्रहरण करना चाहा किन्तु उसको छूते ही जब हाथ जलने लगे तो वे अंगारों को फेंक कर ऋषभ देव के पास आये और उन्हें सारा वृत्तान्त कह सुनाया । ऋषभकुमार ने कहा - "आस-पास की घास साफ करने से अग्नि आगे की ओर नहीं बढ सकेगी।" उन युगलिकों ने ऋषभ के आदेशानुसार अग्नि के आस-पास के भूखण्ड पर पड़े सूखे पत्तों और काष्ठ को हटा कर भूमि को साफ कर दिया। उसके परिणामस्वरूप आग का बढ़ना रुक गया । तदनन्तर प्रभु ने उन युगलिकों को बताया कि इसी प्राग में कच्चे धान्य को पका कर खाया जाय तो अपच अथवा उदरशूल आदि की व्याधि नहीं होगी । उस समय के भोले युगलिकों ने धान्य को आग में डाला तो वह जल गया । इस पर यौगलिक समुदाय हताश हो पुनः ऋषभकुमार के पास आया और बोला कि अग्नि तो स्वयं ही इतनी भूखी है कि वह समग्र सारा का सारा धान्य खा जाती १ आवश्यक रिण पृ० १५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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