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वंश और गोत्र स्थापना] भगवान् ऋषभदेव पर प्रारूढ़ नवोदित भुवनभाष्कर बालभानु के समान कमनीय कान्तिवाले, प्रभु ऋषभ बाल-लीला करते हुए, सुमंगला और सुनन्दा के साथ बढ़ने लगे ।'
वंश प्रौर गोत्र-स्थापना यौगलिकों के समय से, भगवान ऋषभदेव के जन्मकाल तक मानव समाज किसी कूल, जाति अथवा वंश के विभाग में विभक्त नहीं था। अतः प्रभु ऋषभदेव का भी उस समय तक न कोई वंश था और न कोई गोत्र ही। जिस समय प्रभु ऋषभदेव एक वर्ष से कुछ कम वय के हुए, उस समय एक दिन वे अपने पिता नाभि कुलकर की क्रोड़ में बैठे हुए बालक्रीड़ा कर रहे थे। उसी समय एक हाथ में इक्षुदण्ड लिये वज्रपाणि देवराज शक्र उनके समक्ष उपस्थित हुए। देवेन्द्र शक के हाथ में इक्षुदण्ड देखकर शिशु-जिन ऋषभदेव ने, उसे प्राप्त करने के लिये अपन। प्रशस्त लक्षण युक्त दक्षिरण हस्त आगे बढ़ाया। यह देख देवराज शक्र ने सर्वप्रथम प्रभू की इक्षुभक्षण की रुचि जान कर त्रैलोक्यप्रदीप तीर्थंकर प्रभू ऋषभ के वंश का नाम इक्ष्वाकु वंश रखा। उसी समय से भगवान् ऋषभदेव की जन्मभूमि भी इक्ष्वाकु भूमि के नाम से विख्यात हुई । पानी की क्यारी को काटने पर जिस प्रकार पानी की धारा बह चलती है, उसी प्रकार इक्ष के काटने और छेदन करने से रस का स्राव होता है, अत: भगवान् का गोत्र 'काश्यप' रखा गया। शैशव-लीलाएं करते-करते क्रमशः वृद्धिगत हो प्रभू बालक्रीड़ाएं करने लगे। समवयस्क सखाओं और देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते प्रभू के अद्भुत कौशल, अतुल बल, हृदयहारी हस्तलाघव और धूलिधूसरित सुमनोहर छवि को देख माता-पिता और दर्शक रीझ-रोझ कर झम उठते । ' (क) पढमो अकालमच्चू, तहि तालफलेण दारमो पहनो ।
कन्ना कुलगरेणं, सिद्धे गहिया उसभपत्ती ।।२२।। अह वड्ढइ सो भयवं, दियभोगजुप्रो अगुवमसिरीयो । देवगण परिवडो, नंदाइ सुमंगला सहियो ।।११।। असियसिरो सुनयणो, बिबट्रोधवल दंत पंतीग्रो । वर पउमगब्ध गोरो फुल्लुप्पल गन्ध नीसासो ।।१२०।।
[प्रा० भाष्य (ख) पवरणपाडियतालरुखस्स फलेण य जायमिहुणयस्स पुत्तो विणासियो......."सा य
सुनंदा सुट्ट रूववई वणे भमंती जोलाहम्मिएहिं दठ्ठणेगागिणी नाभि कुलगरस्स समप्पिया। तेगावि भज्जा उसभस्स भविस्सइ ति भरिणऊग गहिया ।
[कहावली, अप्रकाशित, एल. डी. ई. ई. अहमदाबाद] २ प्रावश्यक नियुक्ति गा० १८६, नियुक्ति दीपिका गा० १८६ | प्रावश्यक चूरिण, पृ० १५२ ४ मावश्यक म० पूर्व भाग, पृ० १६२, चूणि पृ० १५३
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