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__ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [योग० की अकाल मृत्यु
शिशु-लीला शिशु जिनेश ऋषभ, देवेन्द्र द्वारा अंगुष्ट में निहित अमत का पान करते हुए अनुक्रमशः बढ़ने लगे। प्रभू की सुकोमल शय्या, आसन, वस्त्रालंकार, प्रसाधन सामग्री, अनुलेपन, विलेपन, क्रीड़नक आदि सभी वस्तुएं दिव्य और अत्युत्तम थीं। सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान से च्यवन के समय से ही प्रभु मति, श्रुत और अवधिज्ञान से सम्पन्न थे, अतः उनकी बाल्य लीलाएं भी अद्भुत् और जन-मन को परमाह्लादित, सम्मोहित और आत्मविभोर कर देने वाली होती थीं। बाल रवि के समान उनकी सुमनोहर, नयनाभिराम छवि दर्शक के तन, मन और रोम-रोम को तृप्त-पाप्यायित कर देती थी। उनके बिम्बोष्टों पर, पूर्णिमा के चन्द्र की दुग्धधवला ज्योत्स्ना को भी लज्जित कर देने वाला मन्द-मन्द सम्मोहक स्मित सदा विराजमान रहता था। उनके त्रैलोक्य-ललाम अलौकिक सौन्दर्य को देखने के लिये आने वाले स्त्री-पुरुषों का दिन भर तांता-सा लगा रहता था। दर्शक, उन शैशव-लीलारत बाल-जिनेश्वर प्रभु की त्रिभूवन-सम्मोहक रूपसुधा का विस्फारित एवं निनिमेष नेत्रों से निरन्तर पान करते प्रभु की रूपसुधा के सागर में निमग्न हो अपने आपको भूल जाते थे। अपने नयनों से जितनी अधिक प्रभू की रूपसुधा का पान करते, उतनी ही अधिक उनकी आँखों की प्यास बढ़ती जाती थी।
प्रभु की एक-एक मधुर मुस्कान पर, उनकी एक-एक मन लुभा देने वाली बाल-लीला पर माता मरुदेवी और पिता नाभिराज अात्मविभोर हो उद्वेलित अानन्द सागर की उत्ताल तरंगों के झूले पर झूलते-झूलते झूम उठते थे ।
यौगलिक की अकाल मृत्यु जिन दिनों शिशु-जिन ऋषभ अपनी अद्भुत शिशु-लीलाओं से नाभिराज, माता मरुदेवी, परिजनों, पुरजनों और देव-देवियों को अनिर्वचनीय, अलौकिक अानन्द सागर में निमग्न कर रहे थे, उन्हीं दिनों वन में एक यौगलिक (बालकवालिका) युगल बालक्रीड़ा कर रहा था। सहसा उस बालक के मस्तक पर तालवृक्ष का फल गिरा और उसकी मृत्यु हो गई। यह प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल की प्रथम अकाल-मृत्यू थी । इस अदृष्टपूर्व घटना को देख कर यौगलिक सहम उठे । बालिका को वन में ऐकाकिनी देख विस्मित हुए यौगलिक उसे नाभिराय के पास ले पाये और उन्होंने इस अश्रतपूर्व-अदष्ट पूर्व घटना पर बड़ा आश्चर्य प्रकट किया। नाभि कुलकर ने उन लोगों को समझाया कि अव काल करवट वदल रहा - अंगड़ाई ले रहा है, यह सब उसी का प्रभाव है, यह उसकी पूर्व सूचना मात्र है। कुलकर नाभिराज ने उस बालिका को अपने भवन में यह कह कर रख लिया कि बड़ी होने पर यह ऋषभकूमार की भार्या होगी। उस परम रूपवती बालिका का नाम सुनन्दा रखा गया । सुनन्दा भी अब ऋषभकुमार और सुमंगला के साथ-साथ बाल-लीलाएं करने लगी। इस प्रकार देवगण से परिवत्त, उदयगिरि
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