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बालक ऋषभ का पाहार] भगवान् ऋषभदेव
पनुस्मृति में भगवान् ऋषभ देव को 'उरुक्रमः' के नाम से भी अभिहित किया गया है।'
भगवान् ऋषभदेव जिस समय माता के गर्भ में आये, उस समय कुबेर ने हिरण्य की वृष्टि की, इस कारण उनका नाम हिरण्यगर्भ भी रखा गया।'
उत्तरकालीन प्राचार्यों एवं जैन इतिहासविदों ने, भगवान् ऋषभदेव का, कर्मभूमि एवं धर्म के प्राद्य प्रवर्तक होने के कारण मादिनाथ के नाम से उल्लेख किया है । जनसाधारण में, शताब्दियों से भगवान् ऋषभदेव प्रायः आदिनाथ के नाम से विख्यात हैं।
बालक ऋषभ का प्राहार यद्यपि आगमों में तीर्थंकरों के आहार के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है तथापि प्रागमोत्तरकालीन नियुक्ति, भाष्य, रिण प्रादि आगमों के व्याख्यासाहित्य तथा कहावली आदि ग्रन्थों के उल्लेखों से यह प्रकट होता है कि तीर्थंकर स्तन्यपान नहीं करते । देवेन्द्र अथवा देवों ने प्रभू ऋषभ के जन्म ग्रहण करते ही उनके अंगूठे (अंगुली) में अमृत अथवा मनोज्ञ पौष्टिक रस का संक्रमण (स्थापन) कर दिया। आहार की इच्छा होने पर शिशु तीर्थकर अपने अंगूठे को मुंह में रख लेते और उसी से नानाविध पौष्टिक रस ग्रहण करते । देवेन्द्र द्वारा नियुक्त देवियां अहर्निश वाल-जिनेश की प्रगाढ़ भक्ति और निष्ठा के साथ सेवा-सुश्रूषा करतीं। शुक्ल पक्ष की द्वितीया के चन्द्र की कला के समान भगवान् ऋषभ उत्तरोत्तर ज्यों-ज्यों वृद्धिंगत होने लगे, त्यों-त्यों देवों द्वारा उन्हें फलादि मनोज्ञ आहार पर्याप्त मात्रा में प्रस्तुत किया जाता रहा ।
विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के विद्वान् प्राचार्य भद्रेश्वर सूरि की वृहद् ऐतिहासिक कृति 'कहावली' के उल्लेखानुसार भगवान् ऋषभदेव प्रवजित होने से पूर्व तक के अपने सम्पूर्ण गृहस्थजीवन-काल में देवों द्वारा लाये गये देवकुरु और उत्तरकृरु क्षेत्रों के फलों का आहार और क्षीर सागर के जल का पान करते रहे।
' अष्टमो मरुदेव्यां तु, नाभेर्जात उरुक्रमः ।
मनुस्मृति २ विभोहिरण्यगर्मत्वमिव बोधयितुं जगत् ॥१५॥ हिरण्यगर्भस्त्वं धाता ॥५७॥
___- महापुराण, पर्व १२ और १५ 3 प्राहारमंगुलीए, ठवंति देवा मणुन्नं तु ॥१॥ आव० अ० १ • समइक्कंत बालभावा य सेस जिणा अग्गिपक्कमेवाहारं भुजंति । उसह सामी उरण पवज्ज
प्रपडिवन्नो देवोवरणीय देवकुरु उत्तरकुरु कप्परुक्खामय फलाहारं खीरोदहि जलं च उपमुंजति ।
[कहावली, हस्तलिखित प्रति, एल. डी. ई. ई., अहमदाबाद]
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