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________________ २० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्र० जिने० का नामकरण का शुभ- लांछन (चिह्न) था, अतः माता-पिता ने अपने पुत्र का नाम ऋषभदेव रखा ।' ऋषभ का अर्थ है - श्रेष्ठ । प्रभु त्रैलोक्यतिलक के समान संसार में सर्वश्रेष्ठ थे, उन्होंने प्रागे चलकर सर्वश्रेष्ठ धर्म की संस्थापना की, इस दृष्टि से भी प्रभु का 'ऋषभ' नाम सर्वथा समुचित और यथा नाम तथा गुरण निष्पन्न था। पंचम अंग 'वियाह पनति' आदि ग्रागम और आगमेतर साहित्य में प्रभु के नाम ऋषभ के साथ 'नाथ' और देव का भी प्रयोग किया गया है, जो प्रभु ऋषभ के प्रति अतिशय भक्तिभाव का द्योतक प्रतीत होता है । दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में ऋषभ का कई स्थानों पर वृषभदेव नाम उपलब्ध होता है। वृषभदेव जगत् में ज्येष्ठ हैं, श्रेष्ठ हैं । ये जगत् के लिये हितकारक धर्म रूपी अमृत की वर्षा करने वाले हैं, इसलिये इन्द्र ने उनका नाम वृषभदेव रखा । भागवतकार के मन्तव्यानुसार सुन्दर शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बल, यश और पराक्रम आदि सद्गुणों के कारण महाराज नाभि ने उनका नाम ऋषभ रखा । " चूरिणकार के उल्लेखानुसार भगवान् ऋषभ का एक नाम 'काश्यप' भी रखा गया था। इक्षु के विकार अथवा परिवर्तित स्वरूप इक्षुरस का पर्यायवाची शब्द कास्य भी है, उस कास्य का पान करने के कारण प्रभु ऋषभदेव को काश्यप नाम से भी अभिहित किया जाता रहा है। ऋषभ कुमार जिस समय एक वर्ष से कुछ कम अवस्था के थे, उस समय जब देवराज शक्र प्रभु की सेवा में उपस्थित हुये. उस समय देवराज के हाथ में इक्षुदण्ड था। बाल प्रादिजिनेश ने इक्षु की ओर हाथ बढ़ाया । इन्द्र ने प्रभु को वह इक्षुदण्ड प्रस्तुत किया । प्रभु ने उस इक्षुदण्ड के रस का पान किया। उस घटना को लेकर संभव है नामकरण के कुछ मास पश्चात् प्रभु का वंश भी काश्यप नाम से कहा जाने लगा । कल्पसूत्र में भगवान् ऋषभदेव के पाँच नामों का उल्लेख है, जो इस प्रकार हैं -- (१) ऋषभ, (२) प्रथम राजा, (३) प्रथम भिक्षाचर, (४) प्रथम जिन और (५) प्रथम तीर्थंकर । १ उरुसु उस भलंछरणं, उसभो सुमिरणम्मि तेरण कारण उसभी त्ति गामं कयं । ૧ महापुराण ( जिनसेन), पर्व १४, श्लोक १६० 3 श्रीमद्भागवत ५-४-२ प्रथम खण्ड, गोरखपुर संस्करण ३, पृ० ५५६ ४ कास उच्छु तस्य विकारो कास्यः रसः, सो जस्स पारणं सो कासवो उसभसामी । श्रावश्यक चूरिंग, पृ० १५१ - दशर्वकालिक, प्र० ४, श्रगस्त्य ऋषि की चूरिंग ५ उसमे इ वा पढमराया इ वा, पढमभिक्खायरे इ वा पढम जिणे इ वा, पढम तित्थयरे इ वा । कल्पसूत्र, सूत्र १९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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