________________
१६
प्र. जिने० का नामकरण] भगवान् ऋषभदेव
__ वैश्रमण (कुबेर), जृभक देवों द्वारा बत्तीस कोटि रजत मुद्राएं, उतनी ही स्वर्ण मुद्राएं, बत्तीस कोटि रत्न, बत्तीस-बत्तीस नंद वृत्तासन, भद्रासन और रूप, लावण्य, यौवन आदि को अभिवद्धित करने वाली सभी प्रकार की प्रसाधन सामग्री तीर्थकर प्रभु ऋषभदेव के जन्मगृह में पहुंचा दिये जाने के पश्चात् शक की सेवा में उपस्थित हो, उन्हें उनकी आज्ञा की पूर्ति कर दिये जाने की सूचना देता है।
तदनन्तर देवराज शक्र आभियोगिक देवों को वूला कर कहते हैं - "हे देवानुप्रिय ! तीर्थकर प्रभु के जन्म-नगर विनीता के शृगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, महापथों एवं बाह्याभ्यन्तर सभी स्थानों में, उच्च और स्पष्ट स्वरों में उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार की घोषणा करो :
___"जितने भी भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव तथा देवियां हैं, वे सभी सावधान होकर सुन लें कि यदि कोई तीर्थंकर भगवान और उनकी माता का अशुभ करने का विचार तक भी मन में लावेगा, तो उसका मस्तक ताल वृक्ष की मंजरी के समान तोड़ दिया जायगा, फोड़ दिया जायगा।"
__ आभियोगिक देवों ने देवराज शक्र की आज्ञा को शिरोधार्य कर तीर्थंकर भगवान् के जन्म-नगर के बाह्याभ्यन्तरवर्ती सभी स्थानों में उक्त प्रकार की घोषणा कर दी।
बाल-जिनेश्वर प्रभु ऋषभ का जन्माभिषेक महामहोत्सव सम्पन्न कर चारों जाति के देव-देवेन्द्र नन्दीश्वर द्वीप में गये और वहां उन्होंने प्रभु के जन्म का अष्टाह्निक महामहोत्सव मनाया।
महाराज नाभि ने और प्रजा ने भी बड़े हर्षोल्लास के साथ प्रभु का जन्ममहोत्सव मनाया।
प्रथम जिनेश्वर का नामकरण जन्म-महोत्सव सम्पन्न होने के पश्चात् प्रथम जिनेश का नामकरण किया गया। प्रथम जिन के गर्भागमन काल में माता मरुदेवी ने चौदह महास्वप्नों में सर्वप्रथम सर्वांग-सुन्दर वृषभ को देखा था और शिशु के उरुस्थल पर भी वृषभ । तए णं से सक्के देविदे देवराया पाभियोगे देवे सहावेइ २ ता एवं वयासी-"खिप्पामेव
भो देवारणप्पिया ! भगवनो तित्थयरस्स जम्मरणरणयरंसि सिंघाडग जाव महापहेसु महया महया सहणं उग्घोसेमारणा २ एवं वयह-हदि ! सरपंत भवंतो बहवे भवणवह वाणमंतर जोइस वेमाणिया देवा य देवीमो य जे ण देवाणुप्पिया ! तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए वा उरि असुहं मरणं पहारेइ, तस्स रणं प्रज्जगमंजरिया इव सयहा मुद्धा रणं फुट्टनो, तिकटु घोसणं घोसेह २ ता एयमापत्तियं पच्चप्पिणह ।" तए णं ते माभिप्रोग देवा जाव एवं देवो त्ति मारणाए पडिसुरणंति २ त्ता सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियानो पडिनिक्खमंति २ ता खिप्पामेव भगवनो तित्थयरस्स जम्माणगरंसि सिंघाडग जाव एवं वयासी - "हंदि ! सुणंतु भवंतो बहवे भवरणवई जाव जे णं देवाणुप्पिया ! तित्थयरस्स जाव फुट्टिहिति" तिकटु घोसणं घोसेंति २ त्ता एयमारणत्तियं पच्चप्पिणंति ।
- जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (अमोलक ऋषिजी म.) अधिकार ५, पृ० ४८६-४६१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org