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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [जन्माभिषेक और महो० अभिषेक की सम्पूर्ण सामग्री के प्रस्तुत हो जाने पर वे कलशों को क्षीरसागर के क्षीरोदक, पुष्करोदक, भरत तथा एरवत क्षेत्र के मागधादि तीर्थों के जल, गंगा आदि महानदियों के जल, सभी वर्षधरों, चक्रवर्ती विजयों, वक्षस्कार पर्वत के द्रहों, महानदियों आदि के जल से पूर्ण कर उन पर क्षीरसागर के सहस्रदल कमलों के ढक्कन लगा, सभी तीर्थों एवं महानदियों की मिट्टी, सुदर्शन, भद्रशाल, नन्दन आदि वनों के पुष्प, तुअर, औषधियों, गौशीर्ष प्रभृति श्रेष्ठ चन्दन आदि को ले अभिषेक के लिये प्रस्तुत करते हैं ।
तदनन्तर अच्युतेन्द्र उपर्युक्त सभी चन्दनचर्चित कलशों एवं सभी प्रकार की अभिषेच्य सामग्री से भगवान् ऋषभदेव का महाभिषेक करते हैं । प्रभु के अभिषेक के समय देव जयघोषों से गगनमण्डल को गुंजरित करते हुए, नृत्य, नाटक
आदि करते हुए अपने अन्तर के अथाह हर्ष को प्रकट करते हैं। देव चारों ओर पंच दिव्यों की वृष्टि करते हैं।
इसी प्रकार शेष ६३ इन्द्र भी प्रभ का अभिषेक करते हैं। शक्र चारों दिशाओं में चार श्वेत वृषभों की विकुर्वणा कर उनके शृगों से पाठ जलधाराएं बहा प्रभु का अभिषेक करते हैं। इस प्रकार अभिषेक के पश्चात् शक्र प्रभु को जन्मगह में ला माता के पास रख, उनके सिरहाने क्षोमयुगल और कुण्डलयुगल रख, प्रभु के दूसरे स्वरूप को हटा माता की निद्रा का साहरण करते हैं।
तदनन्तर देवराज शक कुबेर को बूला तीर्थंकर प्रभु के जन्मघर में बत्तीस कोटि हिरण्य, बत्तीस कोटि स्वर्णमुद्राएं, ३२ कोटि रत्न, बत्तीस नन्द नामक वृत्तासन, उतने ही भद्रासन और प्रसाधन की सभी सामग्री रखने की आज्ञा देते हैं।' कुबेर जभक देवों को आज्ञा दे ३२ करोड़ मुद्राएं आदि जन्मभवन में रखवा देता है। १ तएणं से सक्के देविदे देवराया वेसमणं देवं सहावेइ, सहावेइत्ता एवं वयासी - "खिप्पामेव
भो देवाणु प्पिया। बत्तीसं हिरण कोडीग्रो, बत्तीसं सुवरण कोडीग्रो, बत्तीसं रयण कोडीमो, बत्तीसं-बत्तीसं दाईं, भद्दाई सुभग-सुभग रूवे जोवण लावण्णण भगवनो तित्थय रस्स जम्मरण भवरणंसि साहराहि साहराहित्ता एपमारणत्तियं पच्चप्पिणाहि।" तए रणं से वेसमरण देवे सक्केणं जाव विणएणं वयणं पडिसुणेइ पडिसुणेइत्ता भए देवे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एवं वयासी-"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बत्तीसं हिरण्णकोडीमो जाव भगवनो तित्थयरस्स जम्मण भवरणंसि साहह साहरहेत्ता एयमापत्तियं पच्चप्पिणह ।" तएणं ते जंभगा देवा वेसमणेणं देवेणं एवं वुत्तासमारणा हतुट्ठ जाव खिप्पामेव बत्तीसं हिरण कोडीमो जाव सुभग्गसोभग्ग एवं जोवरणलावण्णं भगवप्रो तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहरंति साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव जाव पच्चप्पिणंति । तए रणं से वेसमणे देवे जेणेव सक्के देविदे देवराया जाव पच्चप्पिाई ॥३५॥
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, अधि० ५, पृ० ४८८ (अमोलक ऋषिजी म. द्वारा अनुदित)
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