SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन्माभिषेक और महो०] भगवान् ऋषभदेव की ध्वनि करती हुई - "प्रभो ! आप पर्वत के समान चिरायु होवे'- यह पाशीर्वाद देती हैं। इस प्रकार प्रसव के पश्चात् निष्पन्न किये जाने वाले सभी आवश्यक कार्यों को सम्पन्न करने के पश्चात् रूपा प्रादि वे चारों दिक्कुमारिकाएं माता मरुदेवी और प्रभु ऋषभ को जन्मगृह में ला उन्हें शय्या पर विठा, मंगल गीत गाती हुई वहीं खड़ी रहती हैं। उसी समय सौधर्मेन्द्र देवराज शक्र प्राभियोगिक देवों द्वारा निर्मित अतीव विशाल एवं अनपम सुन्दर विमान में अपने अलौकिक वैभव एवं देवों तथा देवियों के विशाल परिवार के साथ विनीता में आया । अपने दिव्य विमान से उसने तीन बार जन्म-भवन की प्रदक्षिणा की। तदनन्तर विमान से उतर कर दिव्य दुन्दुभिघोष के बीच अपनी आठ अग्रमहिषियों और देव-देवियों के साथ जन्म-गृह में पाया। माता मरुदेवी को देखते ही शक्र ने सांजलि शीष झुका पादक्षिणा प्रदक्षिणापूर्वक तीन बार प्रणाम किया। तदनन्तर उसने माता मरुदेवी की स्तुति करने के पश्चात् उन्हें निवेदन किया - "हे देवानुप्रिये ! मैं शक नामक सौधर्मेन्द्र तीर्थंकर प्रभु का जन्ममहोत्सव करने आया हूँ । आप पूर्णतः निर्भय रहें।" तदनन्तर शक्र ने अवस्वापिनी निद्रा से माता मरुदेवी को निद्राधीन कर प्रभु ऋषभ का दूसरा स्वरूप बना उनके पास रख दिया। इसके पश्चात् शक ने वैक्रिय शक्ति से अपने पांच स्वरूप बनाये। वैक्रिय शक्ति से बने पाँच शकों में से एक शक ने प्रभु को अपने करतल में उठाया, दूसरे ने प्रभु पर छत्र धारण किया, दो शक दोनों पाव में चामर वीजने लगे और पाँचवां शक्र हाथ में वज्र धारण किये हुए प्रभु के आगे-आगे चलने लगा। तत्पश्चात् चारों जाति के देवों और देवियों के प्रति विशाल परिवार से परिवृत्त शक्र प्रभु को करतल में लिये, दिव्य वाद्ययन्त्रों के निर्घोष के बीच दिव्य देवगति से चलते हए मेरु पर्वत पर पंडक वन में अभिषेक शिला के पास आया। उसने भगवान् ऋषभदेव को पूर्वाभिमुख कर अभिषेक सिंहासन पर बैठाया। उसी समय शेष ६३ इन्द्र भी अपने-अपने विशाल देव-देवी-परिवार और दिव्य ऋद्धि के साथ पण्डक वन में अभिषेक शिला के पास पहुंचे और शक सहित वे ६४ इन्द्र प्रभू ऋषभ की पर्युपासना करने लगे। - उसी समय अच्यतेन्द्र ने आभियोगिक देवों को प्राज्ञा दे, तीर्थकर प्रभु के महार्य महाभिषेक के योग्य १००८ स्वर्ण कलश, उतने-उतने ही रजतमय, मणिमय, स्वर्ण-रौप्यमय, स्वर्ण-मणिमय, स्वर्ण-रजत-मणिमय, मत्तिकामय और चन्दन के कलश, उतने-उतने ही लोटे, थाल, पात्री, सुप्रतिष्ठिका, चित्रक, रत्नकरंड, पंखे, पुष्पों की चंगेरियां, १००८ ही धूप के कड़छल, सब प्रकार के फूलों, प्राभरणों आदि की अनेक चंगेरियां, सिंहासन, छत्र, चामर, तैल के डिब्बे, सरसों के डिब्बे प्रादि-आदि विपुल सामग्री मंगवाई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy