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________________ सुभूम चक्रवर्ती २६३ कार्तवीर्य सहस्रार्जुन द्वारा अपने पिता के मारे जाने की बात सुनकर परशुराम की क्रोधाग्नि भड़क उठी। उसने हस्तिनापुर जाकर अपने पिता के घातक कार्तवीर्य सहस्रार्जुन को मार डाला। इस पर भी उसकी क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई। वह क्षत्रिय वर्ग का ही द्रोही बन गया और उसने दूर दूर तक के प्रदेशों में घूम घूमकर क्षत्रियों को मारा । इस प्रकार पृथ्वी को निक्षत्रिय करने के लिये परशुराम ने सात बार क्षत्रियों का भीषण सामूहिक संहार किया। उस समय कार्तवीर्य सहस्रार्जुन की रानी तारा गर्भिणी थी अतः वह हस्तिनापुर से प्रछन्नरूपेण पलायन कर एक अन्य तापस प्राश्रम में पहुंची और वहाँ एक भूमिगृह (तलघर) में रहने लगी । गर्भकाल पूर्ण होने पर तारा ने एक ऐसे पुत्र को जन्म दिया, जिसके मुख में जन्म ग्रहण करने के समय ही दाढ़ें और दांत थे। तारा का वह पुत्र माता की कुक्षि से बाहर निकलते ही भूमितल को अपनी दाढ़ों में पकड़कर खड़ा हो गया अत: उसका नाम सुभूम रखा गया। उस तलघर में ही सुभूम का लालन-पालन किया गया और वहीं वह क्रमशः बड़ा हुमा । तापस-पाश्रम के कुलपति के पास सुभूम ने शास्त्रों और विद्यानों का अध्ययन किया। युवावस्था में पदार्पण करते ही सुभूम ने अपनी माता से पूछा"मातेश्वरी ! मेरे पिता कौन हैं और कहां हैं ? क्या कारण है कि मुझे इस भूमि के विवर में रखा जा रहा है ?" । तारा ने प्रांसुत्रों की अविरल धाराएं बहाते हुए मौन धारण कर लिया। इस पर सुभूम को बड़ा आश्चर्य हुअा। उसने अपनी माता से विस्मय एवं प्राक्रोश मिश्रित उच्च स्वर में सब कुछ सच-सच बताने के लिये कहा । माता ने अथ से इति तक सम्पूर्ण वृत्तान्त अपने पुत्र सुभूम को कह सुनाया। परशुराम द्वारा अपने पिता के मारे जाने का वृत्तान्त सुनते ही सुभूम की क्रोधाग्नि प्रचण्ड वेग से प्रज्वलित हो उठी। उसके दोनों लोचन रक्तवर्ण हो मग्निवर्षा सी करने लगे। उसने अपने अधर को दांतों से चबाते हुए माता से प्रश्न किया-“अम्ब ! मेरा वह पितृघाती शत्रु रहता कहाँ है ?" माता ने उत्तर दिया-"पुत्र ! वह नशंस पास ही के एक नगर में रहता है। अपने हाथों मारे गये क्षत्रियों की संख्या से अवगत रहने के लिये उसने स्वयं द्वारा मारे गये क्षत्रियों की एक एक दाढ़ उखाड़कर सब दाढ़ें एक बड़े थाल. में एकत्रित कर रखी हैं। किसी भविष्यवक्ता नैमित्तिक ने भविष्यवाणी कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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