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________________ और शिक्षा] प्रथय चक्रवर्ती भरत ८६ चावलों से कपाटों के समक्ष अष्ट मांगलिकों का आलेखन किया। वहां पुनः जानुप्रमाण पुष्पों का ढेर कर उसने चक्रवर्ती के दण्ड रत्न को धूप दिया। हाथ जोड़कर कपाटों को प्रणाम किया। तदनन्तर रत्नमय मूठ वाले वजनिर्मित, शत्रों का विनाश करने में समर्थ, चक्रवर्ती की सेना के मार्ग में खड्डों, गफाओं एवं विषम स्थानों आदि को समतल बनाने में सक्षम, उपद्रवों को नष्ट कर शान्ति के संस्थापक, सुखकर, हितकर और चक्रवर्ती के ईप्सित मनोरथ को तत्काल पूर्ण करने वाले दिव्य एवं अप्रतिहत चक्रवर्ती के दण्डरत्न को हाथ में लेकर सेनापति ने सात-पाठ पांव पीछे की ओर सरक कर और पुनः बड़ी त्वरित गति से कपाटों की ओर बढ़कर उस दण्ड रत्न से तिमिस्र गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट पर पूरे वेग के साथ प्रहार किया। इसी प्रकार दूसरी बार और तीसरी बार भी प्रहार किया। सेनापति द्वारा तीसरे प्रहार के किये जाते ही तिमिस्रप्रभा गुफा के कपाट घोर रव करते हुए पीछे की ओर सरके और पूरी तरह खुल गये । तिमिस्र प्रभा गुफा के द्वारखोलने केपश्चात् सेनापति महाराज भरत की सेवा में लौटा। तिमिस्रप्रभा के दक्षिणी द्वार के कपाटों के खुलने का सुसंवाद सुनकर भरत को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने सेनापति को सम्मानित किया। उसी समय चक्ररत्न प्रायुधशाला से निकला और तिमिस्रप्रभा के दक्षिणी द्वार की ओर अग्रसर हुअा । यह देखकर भरत ने सेनापति को तत्क्षण प्रयाण के लिये सेना को सन्नद्ध करने एवं अपने लिये हस्तिरत्न को सुसज्जित करवाने का आदेश दिया। सैनिक प्रयाण की पूरी तैयारी हो जाने के पश्चात् भरत महाराज श्रेष्ठ गजराज पर आरूढ़ हुए। उन्होंने मणियों में सर्वश्रेष्ठ चार अंगुल लम्बे और दो अंगल चौड़े अनुपम कान्तिशाली मणिरत्न को अपने गजराज के दक्षिण कपोल पर धारण करवाया। इस मणिरत्न की एक हजार देवता अहर्निश सेवा करते थे । इस मणिरत्न की अगणित विशेषताओं में मुख्य-मुख्य विशेषताएं ये थीं कि उस मणिरत्न को शिर पर धारण करने वाला सदा यौवन सम्पन्न, सुखी, स्वस्थ और परम प्रसन्न रहता। उस पर किसी भी प्रकार के शस्त्र का प्रहार नहीं होता । देव, मनुष्य और तिर्यंच किसी भी प्रकार के उपसर्ग उसका कभी पराभव नहीं कर सकते। वह सदा पूर्णतया निर्भय रहता है। उस मणिरत्न को हस्तिरत्न के दक्षिण कपोल पर धारण करवाने के पश्चात महाराज भरत ने आकाश को प्रकम्पित कर देने वाले जयघोषों के बीच अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ तिमिस्रप्रभा गुफा की ओर प्रयाण किया। उस गफा के दक्षिण द्वार के पास आकर उन्होंने उसमें प्रवेश किया। गुफा में प्रवेश करते समय वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों चन्द्रमा सघन काली मेघ घटा में प्रवेश कर रहा हो। उस काली घोर अन्धकारपूर्ण तिमिस्रप्रभा गुफा में प्रवेश करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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