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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ संवर्द्धन
ही भरत ने स्वर्णकार की अधिकरणी ( एरण) के आकार के समान आकार वाले, छः तलों, बारह अंशों, और आठ कोनों वाले काकिणीरत्न को हाथ में लिया । वह काकिणी रत्न चार अंगुल ऊंचा तथा चार-चार अंगुल लम्बा और चौड़ा तथा तौल में आठ स्वर्ण पदिकाओं के बराबर था । जिस तिमिस्रप्रभा गुफा में सूर्य, चांद और तारे प्रकाश नहीं कर पाते, वहां चक्रवर्ती द्वारा काकिणी रत्न को हाथ में लेते ही, उसके प्रभाव से उस घोर अन्धकारपूर्ण तिमिस्रप्रभा गुफा में बारह योजन तक प्रकाश ही प्रकाश व्याप्त हो गया । उस काकिणी रत्न में अनेक प्रति विशिष्ट गुरण थे । उस काकिणी रत्न को धारण करने वाले पर स्थावर अथवा जंगम किसी भी प्रकार के विष का प्रभाव नहीं होता । संसार में जितने भी मान उन्मान हैं, उन सब का सही ज्ञान काकिरणी रत्न में हो जाता । उसके प्रभाव से रात्रि में भी दिन के समान प्रकाश रहता ।
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उस काकिणी रत्न के प्रभाव से भरत ने द्वितीय अर्द्ध भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त करने के लिये उस काली अंधियारी गुफा में प्रवेश किया । गुफा में प्रवेश करने के पश्चात् महाराज भरत ने उस गुफा की पूर्व और पश्चिम दोनों भित्तियों पर कारिणी रत्न से चन्द्र मंडल के समान आकार वाले मण्डलों का एक - एक योजन के अन्तर पर आलेखन करना प्रारम्भ किया । इस तिमिस्रप्रभा गुफा को पार करने तक भरत ने एक-एक योजन के अन्तर से इस प्रकार के कुल मिलाकर ४९ मंडल उस काकिरगी रत्न से बनाये । उन मंडलों के प्रभाव से संपूर्ण गुफा में चारों ओर दिन के समान प्रकाश ही प्रकाश हो गया । उस तिमिस्र प्रभा गुफा के बीच में उन्मग्नजला और निमग्नजला नाम की दो बड़ी भयावनी महा नदियां बहती हैं । उन्मग्नजला महानदी में जो कोई भी तृरण, पत्र, काष्ठ, कंकर, पत्थर, हाथी, घोड़ा, रथ, योद्धा अथवा कोई भी मनुष्य गिरता है, उसे वह तीन बार घुमाकर स्थल पर फेंक देती है। इसके विपरीत निमग्नजला महानदी अपने अन्दर गिरी हुई प्रत्येक वस्तु को अपने अन्दर गिरे हुए किसी भी 'मनुष्य अथवा पक्षी को तीन बार घुमा कर अपने गहन तल में डुबो देती है । ये दोनों महानदियां उस गुफा की पूर्व दिशा की भित्ति से निकलकर पश्चिम दिशा की सिन्धु महानदी में मिल गई है ।
उस तिमिस्रप्रभा गुफा में चक्ररत्न द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलते हुए - महाराज भरत अपनी सेना के साथ सिन्धु नदी के पूर्व दिशा के किनारे पर उन्मग्नजला महानदी के पास आये। वहां उन्होंने अपने वाद्धिक रत्न को उन दोनों नदियों पर अनेक शत स्तम्भों के अवलम्बन से युक्त अचल, अकम्प, अभेद्य, दोनों ओर अवलम्बन युक्त, सर्व रत्नमय ऐसा सुदृढ़ पुल बनाने का आदेश दिया जिस पर उनकी समग्र हस्तिसेना, अश्वसेना, रथसेना और पदाति-सेना पूर्ण सुख-सुविधा के साथ आवागन कर सके । वाद्धिक रत्न महाराज भरत का प्रदेश सुनकर अत्यधिक हृष्ट एवं तुष्ट हुआ । उसने अपने स्वामी की आज्ञा को
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