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________________ ९८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन के देशों और सिन्धु नदी से समुद्र पर्यन्त कच्छ देश पर विजय प्राप्त की। उन सभी विजित देशों के अधिपतियों से सुखसेन सेनापति को चक्रवर्ती भरत के लिये भेंट स्वरूप मणि-रत्न स्वर्णाभरणादि के विपुल भण्डार प्राप्त हुए । उन सब देशों के पत्तनों, महापत्तनों एवं मण्डलों आदि के स्वामियों ने सेनापतिरत्न को अनेक प्रकार की बहुमूल्य भेट प्रस्तुत करते समय हाथ जोड़कर उन्हें निवेदन किया-"चक्रवर्ती भरतेश्वर के सेनापति ! महाराज भरत हमारे स्वामी हैं । हम आपकी शरण में आये हैं । हम आपके देश में रहने वाले आपके आज्ञाकारी सेवक हैं।" _सेनापति ने उन सबका सत्कार-सम्मान किया और प्रशासन सम्बन्धी बातचीत कर उन्हें विदा किया। उपर्युक्त, सिन्धु नदी के पश्चिम तट से लवण समुद्र और वैताढ्य पर्वत पर्यन्त सभी देशों में महाराज भरत की अखण्डित आज्ञा प्रसारित कर सुखसेन सेनापति सिन्धु महानदी को पार कर अपनी सेना के साथ भरत महाराज की सेवा में लौटा। सिन्धु नदी के पश्चिमी तट से लवण समुद्र और वैताढ्य पर्वत पर्यन्त सभी देशों पर अपने विजय अभियान का सारभूत वृतान्त भरत महाराज को सुनाने के पश्चात् सेनापति ने उन देशों से प्राप्त समस्त सामग्री उन्हें समर्पित की। महाराज भरत ने सेनापति का सत्कार सम्मान कर विसजित किया। कतिपय दिनों तक महाराज भरत ने वहीं पर वाद्धिक रत्न द्वारा निर्मित अपने प्रासाद में और सेनापति तथा सैनिकों ने स्कन्धावार में अनेक प्रकार के नाटक देखते एवं विविध भोगोपभोगों का उपभोग करते हुए विश्राम किया । एक दिन महाराज भरत ने अपने सेनापतिरत्न सुखसेन को बुलाकर तिमिस्र गुफा के दक्षिण द्वार के कपाट खोलने का आदेश दिया। सेनापति ने अपने स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य कर पौषधशाला में पौषध सहित अष्टमभक्त तप के द्वारा कृतमाल देव की आराधना की । अष्टम भक्त तप के पूर्ण होने पर स्नानान्तर वस्त्रालंकारों से सुमज्जित हो धूप, पुष्प, माला आदि हाथ में ले तिमिस्र गुफा के दक्षिणी द्वार के पास गया । सेनापति का अनुगमन करते हुए अनेक ईसर, तलवार, मांडविक, सार्थवाह आदि अपने हाथों में पुष्प आदि और अनेक देश-विदेशों की दासियों के समूह मंगल कलश आदि लिये तिमिस्र गुफा के द्वार पर पहुंचे। सेनापति ने मयूर पिच्छ से कपाटों का प्रमार्जन और पानी की धारा से प्रक्षालन करने के पश्चात् उन कपाटों पर गोशीर्ष चन्दन के लेप से पांचों अंगुलियों सहित हथेली के छापे लगाये। गंध, माला प्रादि से कपाटों की अर्चना की । कपाटों के सम्मुख जानु प्रमारण पुष्पों का ढेर लगाया । कपाटों पर वस्त्र का आरोपण किया। तत्पश्चात् सेनापति ने स्वच्छ एवं श्वेत रजतमय सुकोमल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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