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________________ और शिक्षा प्रथम चक्रवर्ती भरत ८७ सब प्रकार की भूमि पर विजय प्राप्त कर वहां से उत्तम वजरत्न आदि महाऱ्या वस्तुएं भेंट में प्राप्त कर लाओ।" यह सुनकर भरत चक्रवर्ती का सेनापति रत्न सुखसेन बड़ा हृष्ट एवं तुष्ट हया। उसने हाथ जोड़कर भरत महाराज की आज्ञा को “यथाज्ञापयति देव" कहकर शिरोधार्य किया। उसने सैन्य शिविर में अपने कक्ष में आकर अपनी सेना को सुसज्जित होने का आदेश दिया। अपने आज्ञाकारी सेवकों को बुलाकर उन्हें अपने श्रेष्ठ गजराज को युद्ध के योग्य सभी साज सज्जाओं से सुसज्जित करने की आज्ञा दे स्नान किया । तदनन्तर सुदृढ़ अभेद्य कवच धारण कर वस्त्राभरण एवं पायधों से सुसज्जित हो हाथी पर आरूढ़ हया । शिर पर छत्र धारण किये हुए सुखसेन सेनापति ने एक विशाल चतुरंगिरणी सेना के साथ जयघोषों के बीच सिन्धु नदी की ओर प्रयारण किया । सूखसेन सेनापति महा पराक्रमी, प्रोजस्वी, तेजस्वी, युद्ध में सर्वत्र अजेय, म्लेच्छों की सब प्रकार की भाषाओं का विशेषज्ञ, बड़ा ही मदुभाषी, भरतक्षेत्र के सम, विषम, दूर्गम और गप्त सभी प्रकार के स्थानों को जानने वाला, शस्त्र एवं शास्त्र दोनों प्रकार की विद्याओं में निष्णात, अर्थशास्त्र एवं नीतिशास्त्र में पारंगत और सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में अपने अजेय शौर्य के लिये विख्यात था। सिन्धु नदी के पास आकर सेनापति ने भरत चक्रवर्ती का चर्मरत्न उठाया, जिसे कि चक्रवर्ती घोर वृष्टि के समय उपयोग में लिया करते हैं। उस चर्मरत्न का प्राकार श्रीवत्स के समान था, वह अचल, अकम्प एवं उत्तमोत्तम कवच के समान अभेद्य था । वह चक्रवर्ती की सुविशाल समस्त चतुरंगिणी सेना को एक ही बार में महानदियों और समुद्रों को उत्तीर्ण कराने में पूर्णतः समर्थ था। वह चर्मरत्न शालि, यव, ब्रीही, गेहूं, चने, चावल आदि सत्रह प्रकार के धान्य, सात प्रकार के रस, मसाले आदि सभी प्रकार को खाद्य सामग्री का उत्पत्ति स्थान था। धान्यादि जो भी वस्तु उसमें प्रातःकाल बोई जाती तो वह उसी दिन संध्या समय तक पक कर तैयार हो जाती थी। वह चर्मरत्न बारह योजन से भी कुछ अधिक विस्तार में फैल जाता था। सखसेन सेनापति ने इस प्रकार के अनेक अलौकिक गणों से सम्पन्न चर्मरत्न को ग्रहण किया। वह तत्काल एक अति विशाल नाव के रूप में परिवर्तित हो गया। उस नाव में अपने समग्र बल-वाहन एवं चतुरंगिरणी के साथ सेनापति आरूढ हए । महा वेगवती कल्लोलशालिनी उस सिन्धू महानदी को चर्मरत्न से सेना सहित पार कर सेनापति ने सिन्धु नदी के पश्चिमी प्रदेशों पर चक्रवर्ती भरत की विजय वैजयन्ती फहराने का अभियान प्रारम्भ किया। सेनापति ने क्रमशः सिंहल, बर्बर, अतिरमणीय अंगलोक, यवनद्वीप, श्रेष्ठ मणिरत्नों और स्वर्ण के भण्डारों से परिपूर्ण अरब देश, रोम, अरखंड, पंखुर, कालमुख, यवनक देश और उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत पर्यन्त सभी देशों, नैऋत्य कोण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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