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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन ने स्नानादि से निवृत्त हो पाँचवें अष्टमभक्त तप का पारणा किया और अपने प्रजाजनों को करमुक्त कर पूर्ववत् वैताढ्य गिरि कुमार देव का भी अष्टाह्निक महामहोत्सव मनाने का आदेश दिया । बड़े हर्षोल्लास से सबने अष्टाह्निक महामहोत्सव मनाया। इस पाँचवें अष्टाह्निक महोत्सव के समाप्त होते ही वह सुदर्शन चक्ररत्न पुनः प्रायुधशाला से निकला और अन्तरिक्ष को दिव्य वाद्ययन्त्रों के निनाद से गजाता हुआ वैताढ्य की दक्षिणी तलहटी से पश्चिम दिशा में तिमिस्र गुफा की ओर अग्रसर हुआ । यह देख भरत बड़े हृष्ट-तुष्ट एवं प्रमुदित हुए। उन्होंने अभिषेक हस्ति पर आरूढ़ हो अपनी सेना के साथ चक्ररत्न का अनुसरण किया । एक एक योजन के प्रयाण के पश्चात् पड़ाव और पुनः प्रयाण के क्रम से वे तिमिस्र गहा के समीप पहुंचे। वहां बारह योजन लम्बे और नौ योजन चौड़े क्षेत्र में अपनी सेना का पड़ाव डालकर महाराज भरत ने कृतमाल देव की अाराधना के लिये पौषधशाला में दर्भासन पर बैठ पौषध सहित अष्टमभक्त तप किया। इस छठे अष्टमभक्त तप के पूर्ण होते होते कृतमाल देव का प्रासन चलित हुआ और अवधिज्ञान के उपयोग से वस्तुस्थिति को यथावत् जानकर वह महाराज भरत को भेंट करने हेतु उनके भावी स्त्रीरत्न के लिये तिलक आदि चौदह प्रकार के आभरण तथा अनेक प्रकार के वस्त्रालंकार एवं आभरण आदि लेकर भरत की सेवा में उपस्थित हुना। उसने हाथ जोड़कर भरत से निवेदन किया- "देवानुप्रिय ! मैं आपके राज्य का निवासी आपका आज्ञाकारी किंकर हूं। इसीलिये आपको प्रीतिदान के स्वरूप में यह भेंट समर्पित कर रहा हूं। कृपा कर इसे ग्रहण करें।" इस प्रकार निवेदन करने के पश्चात् कृतमाल देव ने उपरिवरिणत सभी वस्तुएं महाराज भरत को भेंट की। भरत ने भेंट स्वीकार कर कृतमाल देव का सत्कार-सम्मान किया और तदनन्तर उसे विसजित अर्थात् विदा किया । कृतमाल देव को विदा करने के पश्चात महाराज भरत ने प्रावश्यक कृत्यों से निवृत्त हो छठे तेले के तप का पारण किया। भोजनोपरान्त वे उपस्थानशाला में सिंहासन पर पूर्वाभिमुख हो प्रामीन हुए। उसी समय उन्होंने प्रजाजनों को कर प्रादि से मुक्त कर कृतमाल देव का अष्टाह्निक महामहोत्सव मनाने का आदेश दिया । पाठ दिन तक बड़ी धूमधाम से कृतमाल देव का अष्टाह्निक महोत्सव मनाया गया । उस छठे महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर महाराज भरत ने अपने सेनापतिरत्न मुखसेन को बलाकर आदेश दिया- 'हे देवानुप्रिय ! तुम चतुरंगिणी सेना लेकर मिन्धु नदी के पश्चिमी तट से लवण समुद्र गौर वताय पर्वत तक जो छोटा खण्ड है, उसके सब देशों को, वहां की मम अथवा विषम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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