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और शिक्षा]
प्रथम चक्रवर्ती भरत
स्वर्णमय भद्रासन, भुजबन्ध आदि अनेक प्राभरण लेकर उत्कृष्ट देवगति से भरत महाराज के पास उपस्थित हुई और हाथ जोड़कर उन्हें निवेदन करने लगी :- "हे देवानुप्रिय ! आपने भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है। मैं आपके अधिकारक्षेत्र में रहने वाली आपकी आज्ञाकारिणी किंकरी हं अतः आप भेंट स्वरूप मेरा यह प्रीतिदान स्वीकार करें।"
__ इस प्रकार निवेदन कर सिन्धुदेवी ने भरत को अपने साथ लाई हुई उपरिलिखित सभी वस्तुएं भेंट स्वरूप समर्पित की। महाराज भरत ने सिन्धु देवी द्वारा भेंट की गई वस्तुओं को स्वीकार किया। तदनन्तर भरत ने सिन्धुदेवी का सत्कार सम्मान कर उसे आदरपूर्वक विदा किया।
सिन्धुदेवी को विदा करने के पश्चात् महाराजा भरत ने स्नानादि से निवृत्त हो चतुर्थ अष्टमभक्त तप का पारणा किया। तदनन्तर उपस्थान शाला में सिंहासन पर पूर्वाभिमुख आसीन हो अपनी प्रजा को कर, शुल्क, दण्ड आदि से मुक्त कर उसे सिन्धुदेवी का अष्टाह्निक महामहोत्सव मनाने का आदेश दिया। भरत महाराज की आज्ञानुसार आठ दिन तक सिन्धुदेवी का महामहोत्सव मनाया गया।
सिन्धुदेवी के अष्टाह्निक महोत्सव के अवसान पर वह सुदर्शन नामक चक्ररत्न भरत की आयुधशाला से निकल आकाशमार्ग से ईशान कोण में वैताढ्य पर्वत की ओर बढ़ा। हस्तिस्कन्धाधिरूढ़ भरत अपनी विशाल वाहिनी के साथ चक्ररत्न द्वारा प्रदर्शित पथ पर सभी प्रदेशों पर अपनी विजयवैजयन्ती फहराते एवं विजित अधिपतियों से भेंट ग्रहण करते हुए एक एक योजन के अन्तर पर अपनी सेना का पड़ाव डाल पुनः कूच करते हुए वैताढ्य पर्वत की दक्षिणी तलहटी में आये। वहां सेना का पड़ाव डालने के पश्चात् वैताढ्य गिरिकुमार देव की साधना के लिये पौषधशाला में अष्टमभक्त और पौषधवत ग्रहण कर दर्भासन पर बैठ एकाग्रचित्त हो उसका चिन्तन करने लगे । अष्ट्रमभक्त तप के पूर्ण होते ही वैताढ्य गिरिकुमार देव का आसन दोलायमान हुआ। अवधिज्ञान द्वारा भरत चक्रवर्ती के आगमन तथा विगत, वर्तमान एवं भावी वैताढ्य गिरि कुमार देवों के जीताचार से अवगत हो भरत को भेंट करने के लिये अभिषेक योग्य अलंकार, कंकण, भुजबन्ध, वस्त्र आदि ले दिव्य देवगति से भरत के सम्मुख उपस्थित हुआ। उसने हाथ जोड़कर भरत से निवेदन किया :"हे देवानप्रिय ! आपने भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है, मैं भी आपके राज्य में रहने वाला आपका आज्ञाकारी किकर हूं, अतः यह भेट आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूं। आप इसे कृपा कर स्वीकार करें।"
महाराज भरत ने भेंट स्वीकार कर वैताढ्य गिरिकुमार देव का सत्कारसम्मान किया और तदनन्तर उसे विदा किया। तत्पश्चात् महाराज भरत
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