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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन सेना ने स्कन्धावार में पड़ाव डाला । महाराज भरत ने अपने वाद्धिक रत्न द्वारा निर्मित पौषधशाला में प्रभास तीर्थाधिपति देव की साधना के लिये पूर्वोक्त विधि से पौषध सहित अष्टम भक्त किया। अष्टमभक्त तप के सम्पन्न होने के पश्चात उन्होंने रथारूढ़ हो अपनी सेनों के साथ प्रभास तीर्थ की ओर प्रयारण किया। उन्होंने लवण समुद्र में रथ की पींजनी पर्यन्त पानी पाने तक रथ को हांका और पूर्ववत् ही अपने धनुष से प्रभास तीर्थाधिपति देव के भवन की ओर तीर छोड़ा। प्रभास तीर्थ का अधिष्ठाता देव भी रत्नों की माला, मुकुट, मौलिकजाल, स्वर्णजाल, कड़े, बाहुओं के प्राभरण प्रभास तीर्थ का पानी, नामांकित बाण आदि अनमोल भेंट सामग्री लेकर भरत की सेवा में पहुंचा। उसने वे सब वस्तुएं भरत को भेंट करते हुए करबद्ध हो निवेदन किया-"देवानुप्रिय ! मैं वायव्य दिशा का अन्तपाल, आपके राज्य में रहने वाला आपका आज्ञाकारी किंकर हूं।" भरत ने उसकी भेंट स्वीकार कर उसे सम्मानित कर विदा किया । सम्पूर्ण वायव्य दिशा को जीत कर अपने राज्य में मिलाने के पश्चात् भरत अपनी सेना सहित अपने सैन्य शिविर में लौट आये । स्नानादि से निवृत्त हो तृतीय अष्टम भक्त तप का पारणा करने के पश्चात उन्होंने अठारह श्रेरिण-प्रश्रेणियों के लोगों को बुला कर उन्हें करमुक्त, शुल्क मुक्त एवं दंडमुक्त करते हुए प्रभास तीर्थाधिपति देव का अष्टाह्निक महामहोत्सव मनाने की प्राज्ञा दी। सब लोगों ने आठ दिन तक महा महोत्सव मनाया। तत्पश्चात् चक्ररत्न प्रायुधशाला से निकल कर दिव्य वाद्य यन्त्रों की सुमधुर ध्वनि से नभमण्डल को आपूरित करता हुआ अन्तरिक्ष में सिन्धु महा नदी के दक्षिणी तट से पूर्व दिशा में अवस्थित सिन्धु देवी के भवन की ओर अग्रसर हया। यह देख महाराज भरत बड़े हृष्ट एवं तुष्ट हए । अभिषेक हस्ति पर आरूढ़ हो सेना सहित वे भी चक्ररत्न का अनुसरण करते हुए सिन्धु देवी के भवन के पास आये। वहां बारह योजन लम्बा और नो योजन चौड़ा स्कन्धावार बनवा सेना का पड़ाव डाला और अपने वाद्धिक रत्न से अपने लिये आवास और पौषधशाला बनवा कर पौषधशाला में सिन्धु देवी की साधना के लिये भरत ने पौषध सहित चौथा अष्टम भक्त तप किया। अष्टम भक्त के पौषध में वे पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत के पालन के साथ दर्भ के आसन पर बैठ सिन्धु देवी का चिन्तन करते रहे। अष्टम भक्त तप के पूर्ण होते होते सिन्धु देवी का प्रासन प्रकम्पित हुआ । सिन्धु देवी ने अवधिज्ञान के उपयोग से देखा कि भरतक्षेत्र के इस अवसर्पिणी काल के प्रथम चक्रवर्ती भरत षट्खण्ड के साधनार्थ उसके भवन के पास पाये हैं। यह त्रिकालवर्ती सिन्धु देवियों का जीताचार है कि वे चक्रवर्ती को भेंट समर्पित करें। प्रत: मुझे भी चक्रवर्ती भरत को उनके समक्ष जाकर भेंट प्रस्तुत करनी चाहिये । इस प्रकार विचार कर सिन्धु देवी रत्नजटित १००८ कुम्भकलश, भांति भांति के दुर्लभ मणिरत्नों से जटित दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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