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________________ और शिक्षा प्रथम चक्रवर्ती भरत ८३ __ आठ दिन के मागध देव के महामहोत्सव के सम्पन्न होने पर महाराज भरत ने देखा कि चक्ररत्न दक्षिण-पश्चिम के बीच की नैऋत्य कोण में वरदाम तीर्थ की ओर प्रस्थित हया है। महाराज भरत भी अभिषेक हस्ति पर आरूढ हो अपनी सेना को साथ ले चक्र के पीछे-पीछे चलने लगे। वे चक्ररत्न द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर आगे बढ़ते हए सर्वत्र अपनी जय पताका फहराते, विजितों से बहुमूल्य भेंट स्वीकार करते और एक एक योजन के अन्तर से सेना का पड़ाव डालते हुए वरदाम तीर्थ के पास आये। वहां अपनी सेना को पड़ाव डालने का आदेश दे भरत ने अपने वाद्धिक रत्न से अपने लिये आवास और पौषधशाला का निर्माण करवाया। तदनन्तर भरत ने पौषधशाला में प्रविष्ट हो अपने सब अलंकारों और प्रायधों को उतार कर पूर्वोक्त विधि से वरदाम तीर्थाधिपति देव की साधना के लिये पौषधपूर्वक अष्टम भक्त किया। अष्टम भक्त के पूर्ण होने पर उन्होंने रथारूढ़ हो अपनी सेना के साथ वरदाम तीर्थ की ओर प्रयाण किया। लवण समुद्र के पास पहुंच कर भरत ने अपने रथ को लवण समुद्र में हांका । लवण समुद्र का पानी जब रथ की पीजनी तक आ गया तब उन्होंने रथ को रोककर अपने धनुष पर पूर्वोक्त विधि से स्व नामांकित सर का संधान कर प्रत्यंचा को कान तक खींचते हए उसे छोड़ा । मागध तीर्थाधिपति देव के समान ही वरदामतीर्थाधिपति भी भरत के सम्मुख उपस्थित हुआ और उसने भरत की अधीनता स्वीकार करते हुए उन्हें मुकुट, वक्षस्थल का दिव्य आभरण, कंठ का आभरण, कटि-मेखला, कड़े और बाहुओं के आभरण भेंट किये। उसने हाथ जोड़कर भरत से कहा- "देवानप्रिय ! मैं आपका वशवर्ती किंकर और आपके राज्य की दक्षिण दिशा की सीमा का अंतपाल हूं।" ___ महाराज भरत ने वरदाम तीर्थकुमार देव की भेंट को स्वीकार किया। उसका सत्कार-सन्मान करने के पश्चात् उसे विसजित किया। तदनन्तर सेना सहित स्कन्धावार में लौट कर भरत ने स्नानादि से निवृत्त हो द्वितीय अष्टभक्त तप का पारण किया और उपस्थानशाला में सिंहासन पर आसीन हो अपनी प्रजा की अठारह श्रेणि-प्रश्रेणियों को करमुक्त कर आठ दिन तक वरदाम तीर्थाधिपति देव का महामहोत्सव मनाने का सबको आदेश दिया। वरदाम तीर्थ कुमार देव का अष्ट दिवसीय महा महोत्सव सम्पन्न होते ही चक्ररत्न आयुधशाला से निकल कर अन्तरिक्ष में उत्तर पश्चिम दिशा के बीच की वायव्य कोण में प्रभास तीर्थ की ओर बढ़ा । तत्काल महाराज भरत ने भी अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ चक्ररत्न का अनुगमन प्रारम्भ किया। एक एक योजन के अन्तर से सेना का पड़ाव डालते हुए और वायव्य दिशा के समस्त भूमण्डल को अपने अधीन करते हुए वे प्रभास तीर्थ के पास आये । यहां www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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