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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[संवद्धन उत्कृष्ट त्वरित देवगति से चलकर जहाँ भरत चक्रवर्ती प्रवस्थित थे, वहां प्राकाश में रुका। पांचों वर्गों के प्रति मनोहर दिव्य वस्त्रधारी मागधदेव के घुघरुओं की सम्मोहक मधुर ध्वनि ने सबका ध्यान आकाश की ओर आकर्षित किया। मागध देव ने जय विजय के घोष से भरत को वर्धापित करते हुए दोनों हाथ जोड़कर उनके सम्मुख उपस्थित हो निवेदन किया-'हे देवानुप्रिय ! आपने पूर्व में मागध तीर्थ की सीमापर्यन्त सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है । अतः मैं आपके देश में रहने वाला आपका प्राज्ञाकारो किंकर हूं । मैं आपके राज्य को पूर्व दिशा को अन्तिम सीमा का पालक (संरक्षक) हं, यह विचार कर आप मेरी ओर से भेंट किये जा रहे प्रीतिदान को स्वीकार करें।" यह कहते हुए उसने अपने साथ भेंट हेतु लाई हुई उपर्यु ल्लिखित हार आदि सभी वस्तुएँ भरत को भेंट की। महाराज भरत ने मागध तीर्थाधिपति देव की भेंट को स्वीकार कर उसका सत्कार सम्मान किया और तदनन्तर उसे मधुर वचनों से विसजित किया।
मागधतीर्थ कुमार देव को विदा करने के पश्चात् महाराज भरत ने अपना रथ पीछे की ओर घुमाया और सेना सहित वे स्कन्धावार में लौट आये। उपस्थानशाला के पास वे अपने रथ से उतरे। स्नान, मज्जन, विलेपन, आभरणालंकार विभूषण धारण आदि के अनन्तर उन्होंने भोजनमण्डप में उपस्थित हो अष्टमभक्त तप का पारण किया। भोजनोपरान्त उपस्थानशाला में राजसिंहासन पर आसीन हो उन्होंने अपने समस्त परिजनों एवं प्रजाजनों को अनेक प्रकार की सुविधाएं प्रदान कर उन्हें मागधतीर्थ कुमार देव का पाठ दिन तक महिमा महोत्सव मनाने का आदेश दिया । अष्टाह्निक महोत्सव के सम्पन्न होते ही चक्ररत्न आयुधशाला से बाहर निकला। उस वजरत्न की नाभि वजरत्नमयी, आरा लोहिताक्ष रत्नमय और धुरा जम्बरत्नमय था। उसकी प्राभ्यन्तर परिधि में अनेक प्रकार के मणिमय क्षरप्रवाल थे। यह मरिणयों और दिव्य मोतियों की जालियों से विभूषित था। उसकी घुघरियों से अहर्निश निरन्तर भेरी, मदंग आदि बारह प्रकार के दिव्य वाद्ययन्त्रों की कर्णप्रिय अतीव सम्मोहक ध्वनि समस्त वातावरण को मुखरित-गजरित करती रहती थीं। वह उदीयमान सूर्य की अरुणिम आभा के समान तेजस्वी एवं भास्वर था। वह अनेक प्रकार की मणिमयी एवं रत्नमयी घंटिकाओं की रुचिर पंक्तियों से सुशोभित था । उसके चारों ओर सभी ऋतुओं के चित्र-विचित्र वर्णों वाले सुगन्धित एवं सुमनोहर पुष्पों की मालाएं लटक रही थीं। वह आकाश में चलता था। एक हजार देवता सदा संरक्षक के रूप में उसकी सेवा सन्निधि में रहते थे। वह दिव्य वाद्य यन्त्रों के निनाद से अन्तरिक्ष और धरातल को आपूरित करता रहता था। उसका नाम सुदर्शन था जो कि चक्रवर्ती का पहला रत्न माना गया है।
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