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और शिक्षा ]
प्रथम चक्रवर्ती भरत
में मागध तीर्थ के तट से लवण समुद्र में प्रवेश किया । लवण समुद्र में जब उनके रथ की पींजनी भीगने लगी उस समय उन्होंने अपने रथ को रोका । रथ को रोककर उन्होंने मदोन्मत्त महिष के वर्तुलाकार मुड़े हुए शृङ्गों के समान, क्रुद्ध महाकाल की भृकुटि तुल्य शत्रुसंहारकारी रत्नमंडित अपने दिव्य धनुष की प्रत्यंचा पर स्व नामांकित वज्रसारोपम सर का संधान किया । तदनन्तर उन्होने लक्ष्यवेध की वैशाखासन मुद्रा ( ईषत् भुके बाँए चरण को आगे और दक्षिण चरण को एक हाथ पीछे की ओर जमाकर लक्ष्यवेध करने की मुद्रा ) में अवस्थित हो प्राकर्णान्त प्रत्यंचा को खींचते हुए प्रतीव उदार, गुरु-गम्भीर, मृदु स्वर में निम्नलिखित उद्घोष किया :
"आप सब सावधान होकर सुन लें- मेरे इस बाण के प्रभाव के बाहर जो देव, नाग, असुर श्रीर सुपर्ण हैं, उनको मैं नमस्कार करता है और जो देव, नाग, असुर और सुपर मेरे इस बार की परिधि अथवा प्रभाव के आभ्यन्तर में आते हैं, वे भी सावधान होकर सुनलें कि वे सब मेरे प्राज्ञाकारी होवें ।"
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इन मृदु-मंजुल एवं गुरुगंभीर वचनों के उद्घोष के साथ भरत ने बाण को छोड़ा । भरत द्वारा छोड़ा गया वह नामांकित बाण मनोवेग से तत्काल ही बारह योजन की दूरी को लांघकर मागध तीर्थाधिपति के भवन में गिरा । अपने भवन में गिरे उस बार को देखते ही मागध तीर्थाधिपति देव बड़ा ही रुष्ट प्रौर कुपित हुप्रा । प्रचण्ड क्रोध के कारण उसके दोनों लोचन लाल हो गये, वह किट किटा करदाँत पीसने लगा । उसकी भृकुटि तन कर तिरछी हो गई और वह आक्रोश - पूर्ण रौद्र स्वर में बड़बड़ाने लगा - " सकल चराचर जगत में कोई भी प्राणी अपनी मृत्यु के लिये कभी प्रार्थना नहीं करता, पर इस प्रकार की सदा
प्रार्थित मृत्यु की कामना - प्रार्थना करने वाला समस्त दुष्ट लक्षणों का निधान पुण्यहीन, चतुर्दशी अथवा अमावस्या का जन्मा हुआ, निर्लज्ज और निष्प्रभ यह ऐसा कौन है, जिसने मेरे समान महद्धिक देव के भवन पर बारण फेंका है। इस प्रकार के प्राक्रोशपूर्ण वचन बोलता हुआ मागधदेव अपने सिंहासन से उठा और उस बारण के पास पहुंचा। उस बारण को उठाकर वह उसे देखने लगा । ज्योंही उसकी दृष्टि उस बारण पर अंकित नाम पर पड़ी त्योंही उसका क्रोध तत्काल शान्त हो गया । उसके मन में इस प्रकार के विचार, विनम्र अध्यवसाय प्रर संकल्प उत्पन्न हुए कि जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में भरत नामक जो चक्रवर्ती उत्पन्न हुए हैं, वे षट्खण्ड की साधना के लिये प्राये हैं । विगत, वर्तमान और भावी मागध तीर्थाधिप देवों का यह जीताचार है कि चक्रवर्ती के समक्ष उपस्थित हो उन्हें भेंट प्रस्तुत करें। प्रतः मेरा भी कर्त्तव्य है कि मैं भी भेंट लेकर चक्रवर्ती के समक्ष उपस्थित होऊं । इस प्रकार विचार कर मागध तीर्थाधिपति देव ने भरत को भेंट करने के लिये हार, मुकुट, कुडल, कंकण, भुजबन्ध, वस्त्र, ग्राभरगा, भरत का नामांकित बाण और मागघ तीर्थ का जल लिया और इन्हें लेकर
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