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________________ ८० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्दन वाद्यों के गुरु-गंभीर-मृदु घोष के साथ आकाश में चलकर विनोता नगरी के मध्य भाग से होता हा गंगानदी के दक्षिणी तट से पूर्व दिशा में अवस्थित मागध तीर्थ की ओर प्रस्थित हुप्रा । चक्ररत्न को मागध तीर्थ की ओर आकाश में जाते हुए देख महाराज भरत का हृदय-कमल परम प्रफुल्लित हो उठा । वे सब प्रकार के श्रेष्ठ आयुधोंशस्त्रास्त्रों से सुसज्जित चतुरंगिणी विशाल सेना को ले, अभिषेक हस्ति पर प्रारूढ़ हो चक्ररत्न का अनुगमन करने लगे। इस प्रकार हस्तिश्रेष्ठ पर आरूढ़ छत्र, चामरादि से सुशोभित भरत गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर बसे ग्राम, आगार, नगर, खेड़, कर्बट, मडम्ब द्रोणमुख, पत्तन, पाश्रम, संवाह आदि जनावासों से मण्डित वसुन्धरा पर अपनी विजय वैजयन्ती फहरा कर दिग्विजय करते हुए चक्ररत्न द्वारा प्रदर्शित पथ पर अग्रसर होने लगे। आकाश में चलता हुया चक्ररत्न एक-एक योजन की दूरी पार करने के पश्चात् रुक जाता । वहीं भरत महाराज भी अपनी सेना का स्कन्धावार लगा सेना को विश्राम देते । गगनस्थ चक्ररत्न के आगे की ओर अग्रसर होते ही वे भी सेना सहित कूच करते। वे विजित प्रदेशों के अधिपतियों द्वारा सादर समुपस्थित की गई भेंट स्वीकार करते हुए बढ़ने लगे। इस प्रकार प्रत्येक योजन के अन्तर पर पड़ाव डालते हुए महाराजा भरत मागध तीर्थ के समीप पाये। वहां बारह योजन लम्बे और ६ योजन चौड़े स्थल पर उन्होंने अपनी सेना का पड़ाव डाला। तदनन्तर अपने वाद्धिक रत्न को बुला कर उसे उन्होंने अपने लिये एक आवास और पौषध शाला का निर्माण करने का आदेश दिया। वाद्धिकरत्न ने भरत की आज्ञा को शिरोधार्य कर अपने स्वामी के योग्य एक प्रावास और पौषधशाला का निर्माण कर उन्हें सूचित किया। गजराज के स्कन्ध से उतर कर भरत ने पौषधशाला में प्रवेश किया। वहां के स्थान को प्रमाजित कर उन्होंने दर्भासन बिछाया। मैथुन, आभरणालंकार, माला, पूष्प, विलेपन एवं सभी प्रकार के शस्त्रास्त्रों का त्याग करने के पश्चात् दर्भासन पर बैठकर भरत ने मागध तीर्थ के अधिष्ठायक देव की साधना के लिये पौषध सहित अष्टम भक्त (तीन दिन के उपवास अथवा तेले) की तपस्या का प्रत्याख्यान किया । अष्टम भक्त की तपश्चर्या के पूर्ण होने पर महाराज भरत ने अपने प्राज्ञाकारी अधिकारियों को बुला सेना को प्रयाण के लिये सुसज्जित करने एवं अपने लिये चार घण्टों वाले अश्वरथ को तैयार करने का आदेश दिया। तदनन्तर स्नान-विलेपन के अनन्तर वस्त्रालंकारादि से अलंकृत एवं प्रायुधों से सुसज्जित हो चतुरंगिणी विशाल वाहिनी के जयघोषों के बीच वे अश्वरथ पर आरूढ़ हुए। चक्ररत्न द्वारा प्रदर्शित पथ पर उन्होंने अपना रथ अग्रसर किया। उद्वेलित उदधि की क्षुब्ध लोल लहरों के समान सिंहनाद करती हुई अपनी विशाल सेना से विस्तीर्ण भूखण्डों को प्राच्छादित करते हुए भरत ने पूर्व दिशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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