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________________ २३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पूर्वभव कंपित हो अभय की याचना करने लगा।' राजा ने स्नेहपूर्वक उसकी पीठ पर हाथ फेरा और उसे निर्भय रहने को आश्वस्त किया। । इतने में ही वहां एक बाज पाया और राजा से कबूतर की मांग करने लगा । राजा ने शरणागत को लौटाने में अपनी असमर्थता प्रकट की तथा बाज से कहा-"खाने के लिए तू दूसरी वस्तु से भी अपना पेट भर सकता है, फिर इसको मार कर क्या पायेगा? इसको भी प्राण अपने समान ही प्रिय हैं।" - इस पर बाज ने कहा-"महाराज ! एक को मार कर दूसरे को बचाना, यह कहां का न्याय व धर्म है ? कबूतर के ताजे मांस के बिना मैं जीवित नहीं रह सकता, आप धर्मात्मा हैं तो दोनों को बचाइये।" यह सुनकर मेघरथ ने कहा-"यदि ऐसा ही है तो मैं अपना ताजा मांस तुम्हें देता हूं, लो इसे खाओ और असहाय कबूतर को छोड़ दो।" बाज ने राजा की बात मान ली । तराजू मॅगाकर राजा ने एक पलड़े में कबूतर को रखा और दूसरे में अपने शरीर का मांस काट-काट कर रखने लगे। राजा के इस अद्भुत साहस को देख कर पुरजन और अधिकारी वर्ग स्तब्ध रह गये, राज परिवार में शोक का वातावरण छा गया। शरीर का एक-एक अंग चढ़ाने पर भी जब उसका भार कबूतर के भार के बराबर नहीं हुआ तो राजा स्वयं सहर्ष तराजू पर बैठ गया। बाज रूप में देव, राजा की इस अविचल-श्रद्धा और अपूर्व-त्याग को देख कर मुग्ध हो गया और दिव्य-रूप से उपस्थित होकर मेघरथ के करुणाभाव की प्रशंसा करते हुए बोला-"धन्य है महाराज मेघरथ को! मैंने इन्द्र की बात पर विश्वास न करके पापको जो कष्ट दिया, एतदर्थ क्षमा चाहता हूं। आपकी श्रद्धा सचमुच अनुकरणीय है ।" यह कह कर देव चला गया । कुछ समय बाद मेघरथ ने पौषधशाला में पुनः प्रष्टम-तप किया । उम समय राजा ने जीव-दया के उत्कृष्ट अध्यवसायों में महान् पुण्य-संचय किया। ईशानेन्द्र ने स्वर्ग से नमन कर इनकी प्रशंसा की, किन्तु इन्द्राणियों को विश्वास नहीं हमा। उन्होंने आकर मेघ रथ को ध्यान से विचलित करने के लिए १ एम्मि देसयाले, भीमो पारेवरो परथरेतो। पोसहसालमइगमो 'रायं ! सरणं ति सरण' ति ।। [वसुदेव हिण्डी, द्वि० खण्ड, पृ. ३३७] २ प्राचार्य शीलांक के अनुसार वज्रायुध ने पारावत की रक्षा करने को पौषधशाला में अपना मांम काटकर देना स्वीकार किया तो देव उनकी दृढ़ता देख प्रसन्न हो चला गया। [चउ. म. पु. च. पृ. १४६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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