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पूर्वभव] भगवान् श्री शान्तिनाथ
२३७ वज्रायुध की निःस्वार्थ-वृत्ति से देव बहुत प्रसन्न हुआ और दिव्य-अलंकार भेंट कर वज्रायुध के सम्यक्त्व की प्रशंसा करते हुए चला गया।
किसी समय वज्रायध के पूर्वभव के शत्र एक देव ने उनको क्रीड़ा में देखकर ऊपर से पर्वत गिराया और उन्हें नाग-पाश में बांध लिया। परन्तु प्रबलपराक्रमी वज्रायुध ने वज्रऋषभ-नाराच-संहनन के कारण एक ही मुष्टि-प्रहार से पर्वत के टुकड़े-टुकड़े कर दिये और नागपाश को भी तोड़ फेंका।
कालान्तर में राजा क्षेमंकर ने वज्रायध को राज्य देकर प्रव्रज्या ग्रहण की और केवलज्ञान प्राप्त कर भाव-तीर्थंकर कहलाये। इधर भावी-तीर्थकर वज्रायुध ने प्राथुधशाला में चक्र-रत्न के उत्पन्न होने पर छः खण्ड पृथ्वी को जीत कर सार्वभौम सम्राट का पद प्राप्त किया और सहस्रायुध को युवराज बनाया।
एक बार जब वज्रायुध राज-सभा में बैठे हुए थे कि "वचाओ, बचाओ" की पुकार करता हुआ एक विद्याधर वहां आया और राजा के चरणों में गिर पड़ा।
शरणागत जानकर वज्रायुध ने उसे आश्वस्त किया । कुछ सय बाद ही शस्त्र हाथ में लिए एक विद्याधर दम्पति पाया तथा अपने अपराधी को माँगने लगा और उसने कहा-“महाराज ! इसने हमारी पुत्री को विद्या-साधन करते समय उठाकर आकाश में ले जाने का अपराध किया है, अतः इसको हमें सौपिये, हम इसे दण्ड देंगे।"
वज्रायुध ने उनको पूर्वजन्म की बात सुनाकर उपशान्त किया और स्वयं ने भी पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण की। वे संयम-साधना के पश्चात् पादोपगमन संथारा कर पायु का अन्त होने पर ग्रैवेयक में देव हुए।
ग्रेवेयक से निकलकर वज्रायुध का जीव पुण्डरीकिणी नगरी के राजा घनरथ के यहां रानी प्रियमती की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम मेघरथ रखा गया।
महाराज घनरथ की दूसरी रानी मनोरमा से दृढ़रथ का जन्म हुआ। युवा होने पर सुमंदिरपुर के राजा की कन्या के साथ मेघ रथ का विवाह हा । मेघरथ महान् पराक्रमी होकर भी बड़े दयालु और साहसी थे।
महाराज धनरथ ने मेघरथ को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण की । मेघ रथ राजा बन गया, फिर भी धर्म को नहीं भूला । एक दिन व्रत ग्रहण कर वह पौषधशाला में बैठा था कि एक कबूतर पाकर उसकी गोद में गिर गया और भय से
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