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________________ भगवान् श्री शान्तिनाथ भगवान् धर्मनाथ के बाद सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ हुए । इनका जीवन बड़ा प्रभावशाली और लोकोपकारी था । इन्होंने अनेक भवों से तीर्थंकरपद की योग्यता सम्पादित की । इनके श्रीरण, युगलिक आदि के भवों में से यहां वज्रायध के भव से संक्षिप्त परिचय दिया जाता है। पूर्वभव पूर्व-विदेह के मंगलावती-विजय में रत्नसंचया नाम की नगरी थी । रत्नसंचया के महाराज क्षेमंकर की रानी रत्नमाला से वज्रायुध का जन्म हुआ। बड़े होने पर लक्ष्मीवती देवी से उनका विवाह हुआ और वे सुदीर्घ काल तक उसके साथ सांसारिक सुखोपभोग करते रहे । कालान्तर में लक्ष्मीवती ने एक पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम सहस्रायुध रखा गया । किसी समय स्वर्ग में इन्द्र ने देवगण के समक्ष वज्रायुध के सम्यक्त्व की प्रशंसा की । समस्त देवगण द्वारा उसे मान्य करने पर भी ।चत्रचूल नाम के एक देव ने कहा-“मैं परीक्षा के बिना ऐसी बात नहीं मानता।" ऐसा कहकर वह क्षेमंकर राजा की सभा में पाया और बोला-"संसार में आत्मा, परलोक और पुण्य-पाप प्रादि कुछ नहीं है । लोग अन्धविश्वास में व्यर्थ ही कष्ट पाते हैं।" देव की बात का प्रतिवाद करते वज्रायुध बोला-"प्रायुष्मन् ! प्रापको जो दिव्य-पद और वैभव मिला है, अवधिज्ञान से देखने पर पता चलेगा कि पूर्वजन्म में यदि आपने विशिष्ट कर्त्तव्य नहीं किया होता तो यह दिव्य-भव प्रापको नहीं मिलता । पुण्य-पाप और परलोक नहीं होते तो आपको वर्तमान की ऋद्धि प्राप्त नहीं होती।" वज्रायुध की बात से देव निरुत्तर हो गया और उसकी दृढ़ता से प्रसन्न होकर बोला--"मैं तुम्हारी दृढ़ सम्यक्त्वनिष्ठा से प्रसन्न हूं, अतः जो चाहो सो मांगो।" वज्रायुध ने निस्पृहभाव से कहा- मैं तो इतना ही चाहता हूं कि तुम सम्यक्त्व का पालन करो।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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