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________________ चक्रवर्ती मघवा २३५ के देवलोकगमन क सम्बन्ध में "तित्थोगाली पइन्नय” नामक प्राचीन ग्रन्थ की एक गाथा प्रकाश डालती है, जो इस प्रकार है : अद्वैव गया मोक्खं, सुहुमो बंभो य समि पुढवि । मघवं सणकुमारो, सणकुमारं गया कप्पं ।।५७।। अर्थात-बारह चक्रवतियों में से आठ चक्रवर्ती मोक्ष में गये। सुभम और ब्रह्मदत्त नामक दो चक्रवर्ती सातवें नरक में गये तथा मघवा और सनत्कुमार नामक दो चक्रवर्ती सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक में गये । कतिपय विद्वानों की मान्यता है कि चक्रवर्ती मघवा मोक्ष में गये, न कि सनत्कुमार नामक देवलोक में। अपनी इस मान्यता की पुष्टि में उनके द्वारा यह युक्ति प्रस्तुत की जाती है कि उत्तराध्ययनसूत्र के “संजइज्ज" नामक अठारहवें अध्ययन में भरतादि मुक्त हुए राषियों के साथ चक्रवर्ती मघवा और सनतकुमार का स्मरण किया गया है. इससे ऐसा प्रतीत होता है कि चक्रवर्ती मघवा मोक्ष में गये । परन्तु उत्तराध्ययन सूत्र के अठारहवें अध्ययन में सभी राषियों के लिये प्रयुक्त शब्दावलि पर मनन के उपरान्त उन विद्वानों की वह मान्यता केवल अनुमान ही प्रतीत होने लगती है। उक्त अध्ययन की ३५ वीं गाथा में भरत एवं सगर चक्रवर्ती के लिये "परिनिव्वडे" और ३८ से ४३ संख्या तक की गाथाओं में भगवान् शान्तिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ तथा चक्रवर्ती महापद्म, हरिषेण एवं जयसेन के लिये "पत्तो गइमणुत्तरं" पद का प्रयोग किया गया है। इसके विपरीत उक्त अध्ययन की गाथा सं० ३६ में चक्रवर्ती मघवा के लिये 'पव्वज्जमभुवगमो" मोर गाथा सं० ३७ में चक्रवर्ती सनतकुमार के लिये "सोवि राया तवं चरे"-पद का प्रयोग किया गया है। यदि ३७ वीं गाथा और ३८ वी गाथाओं के अन्तिम चरण क्रमशः "मघवं परिनिव्वडो" तथा "पत्तो गइमरणत्तरं"- इस रूप में होते तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता था कि वे मुक्ति में गये । स्थानांगसूत्र में चक्रवर्ती सनतकमार के सम्बन्ध में तो-“दीहेगणं परियाएरणं सिज्झइ जाव सव्वदुक्खागमतं करेइ" स्थानांग सूत्र के इस मूल पाठ पर गहन चिन्तन-मनन करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि वे उसी भव में मुक्त हो गये होंगे, किन्तु इस प्रकार का कोई मृत्रपाठ मघवा चक्रवर्ती के सम्बन्ध में उपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार की स्थिति में तित्थीगाली पइन्नय की उपयुद्ध त गाथा और टीकाकारों के उल्लेखों को देखते हुए यही निष्कर्ष निकलता है कि चक्रवर्ती मघवा सुदीर्घकाल तक श्रमरणपर्याय का पालन कर मनतकुमार नामक तीसरे देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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