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दिगम्बर परम्परा की मान्यता]
भगवान महावीर
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अवधिज्ञान से इन्द्र को जब यह ज्ञात हुआ कि गणधर के अभाव में भगवान का उपदेश नहीं हो रहा है, तो वे उपयुक्त पात्र की खोज में लगे और विचार करते करते उन्हें उस समय के प्रकाण्ड पण्डित इन्द्रभूति का ध्यान आया ।
देवराज शक्र तत्काल शिष्य का छद्मवेश बना कर इन्द्रभूति के पास पहुंचे और सादर अभिवादन के पश्चात् बोले-"विद्वन् ! मेरे गुरु ने मुझे एक गाथा सिखाई थी। उस गाथा का अर्थ मेरी समझ में अच्छी तरह नहीं आ रहा है। मेरे गुरु इस समय मौन धारण किये हुए हैं, अत: आप कृपा कर मुझे उस गाथा का अर्थ समझा दीजिये ।" ।
उत्तर में इन्द्रभूति ने कहा--"मैं तुम्हें गाथा का अर्थ इस शर्त पर समझा सकता हूँ कि उस गाथा का अर्थ समझ में आ जाने पर तुम मेरे शिष्य बन जाने की प्रतिज्ञा करो।"
छद्मवेशधारी इन्द्र ने इन्द्रभूति की शर्त सहर्ष स्वीकार करते हुए उनके सम्मुख यह गाथा प्रस्तुत की :
पंचेव अस्थिकाया, छज्जीवरिणकाया महन्वया पंच । अट्ठ य पवयणमादा, सहेउमो बंध-मोक्खो य ।।
[षट्खण्डागम, पु० ६, पृ० १२६] इन्द्रभूति उक्त गाथा को पढ़ते ही असमंजस में पड़ गये। उनकी समझ में नहीं पाया कि पंच अस्तिकाय, षड्जीवनिकाय और अष्ट प्रवचन मात्राएँ कौनकौन सी हैं । गाथा में उल्लिखित 'छज्जीवरिणकाया' इस शब्द से तो इन्द्रभूति एकदम चकरा गये, क्योंकि जीव के अस्तित्व के विषय में उनके मन में शंका घर किये हुए थी। उनके मन में विचारों का प्रवाह उमड़ पड़ा।
हठात् अपने विचार-प्रवाह को रोकते हुए इन्द्रभूति ने आगन्तुक से कहा"तुम मुझे तुम्हारे गुरु के पास ले चलो। उनके सामने ही मैं इस गाथा का अर्थ समझाऊँगा।"
__ अपने अभीप्सित कार्य को सिद्ध होता देख इन्द्र बड़ा प्रसन्न हया और वह इन्द्रभूति को अपने साथ लिये भगवान् के समवशरण में पहुंचा।
गौतम के वहाँ पहुँचते ही भगवान् महावीर ने उन्हें नाम-गोत्र के साथ सम्बोधित करते हुए कहा-"अहो गौतम इन्द्रभूति ! तुम्हारे मन में जीव के अस्तित्व के विषय में शंका है कि वास्तव में जीव है या नहीं। तुम्हारे अन्तर में जो इस प्रकार का विचार कर रहा है, वही निश्चित रूप से जीव है। उस जीव का सर्वदा प्रभाव न तो कभी हुआ है और न कभी होगा ही।"
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