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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ इन्द्रभूति का शंका-समाधान
इन्द्रभूति का प्रश्न सुनकर प्रभु महावीर ने शान्तभाव से उत्तर देते हुएकहा - । 'इन्द्रभूति ! तुम विज्ञानघन....' इस श्रुतिवाक्य का जिस रूप में अर्थ समझ रहे हो, वस्तुतः उसका वैसा अर्थ नहीं है । तुम्हारे मतानुसार विज्ञानधन का प्रर्थं भूत समुदायोत्पन्न चेतनापिण्ड है, पर उसका सही अर्थ विविध ज्ञानपर्यायों से है । आत्मा में प्रतिपल नवीन ज्ञानपर्यायों का आविर्भाव और पूर्व - कालीन ज्ञानपर्यायों का तिरोभाव होता रहता है । जैसे कि कोई व्यक्ति एक घट को देख रहा है, उस पर विचार कर रहा है, उस समय उसकी आत्मा में घट विषयक ज्ञानोपयोग समुत्पन्न होता है । इस स्थिति को घट विषयक ज्ञानपर्याय कहेंगे । कुछ समय के बाद वही मनुष्य जब घट को छोड़कर पट आदि पदार्थों को देखने लगता है तब उसे पट आदि पदार्थों का ज्ञान होता है और पहले का घट सम्बन्धी ज्ञान - पर्याय सत्ताहीन हो जाता है । अतः कहा जा सकता है कि विविध पदार्थ विषयक ज्ञान के पर्याय ही विज्ञानघन हैं । यहाँ भूत शब्द का अर्थ पृथ्वी आदि पंच महाभूत से न होकर जड़-चेतन रूप समस्त ज्ञेय पदार्थ से है । 'न प्रेत्य संज्ञास्ति' इस वाक्य का अर्थ परलोक का प्रभाव नहीं, पर पूर्व पर्याय की सत्ता नहीं, यह समझना चाहिये । इस प्रकार जब पुरुष में उत्तरकालीन ज्ञानपर्याय उत्पन्न होता है, तब पूर्वकालीन ज्ञानपर्याय सत्ताहीन हो जाता है । क्योंकि किसी भी द्रव्य या गुरण की उत्तर पर्याय के समय पूर्व पर्याय की सत्ता नहीं रह सकती । अत: 'न प्रेत्य संज्ञास्ति' कहा गया है ।"
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भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित इस तर्क-प्रधान विवेचना को सुनकर इन्द्रभूति के हृदय का संशय नष्ट हो गया और उन्होंने अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ प्रभु का शिष्यत्व स्वीकार किया । ये ही इन्द्रभूति प्रागे चलकर भगवान् महावीर के शासन में गौतम के नाम से प्रसिद्ध हुए
दिगम्बर - परम्परा की मान्यता
इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा की मान्यता है कि भगवान् महावीर को केवलज्ञान की उपलब्धि होने पर देवों ने पंच- दिव्यों की वृष्टि की और इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने वैशाख शुक्ला १० के दिन ही समवशरण की रचना कर दी । भगवान् महावीर ने पूर्वद्वार से समवशरण में प्रवेश किया और वे सिंहासन पर विराजमान हुए ।
भगवान् का उपदेश सुनने के लिये उत्सुक देवेन्द्र अन्य देवों के साथ हाथ जोड़े अपने प्रकोष्ठ में प्रभु के समक्ष बैठ गये । पर प्रभु के मुखारविन्द से दिव्य ध्वनि प्रस्फुटित नहीं हुई । निरन्तर कई दिनों की प्रतीक्षा के बाद भी जब प्रभु ने उपदेश नहीं दिया तो इन्द्र ने चिन्तित हो सोचा कि आखिर भगवान् के उपदेश न देने का कारण क्या है ।
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