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इन्द्रभूति का आगमन] भगवान् महावीर आदि महाप्रोतिहार्यों से प्रभु की महती महिमा की । देवों द्वारा एक भव्य और विराट् समवशरण की रचना की गई । वहाँ देव-दानव और मानवों आदि की विशाल सभा में भगवान् उच्च सिंहासन पर विराजमान हुए। मेघ-सम गम्भीर ध्वनि में महावीर ने अर्धमागधी भाषा में देशना प्रारम्भ की। भव्य भक्तों के मनमयूर इस अलौकिक उपदेश को सुनकर भावविभोर हो उठे।
इन्द्रभूति का आगमन
समवशरण में आकाश-मार्ग से देव-देवियों के समूदाय आने लगे । यज्ञस्थल के पण्डितों ने देवगण को बिना रुके सीधे ही आगे निकलते देखा तो उन्हें
आश्चर्य हुप्रा । प्रमुख पण्डित इन्द्रभूति को जब मालूम हुआ कि नगर के बाहर सर्वज्ञ महावीर आये हैं और उन्हीं के समवशरण में ये देवगण जा रहे हैं, तो उनके मन में अपने पाण्डित्य का दर्प जागृत हुआ। वे भगवान महावीर के अलौकिक ज्ञान की परख करने और उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित करने की भावना से समवशरण में आये । उनके साथ पाँच सौ छात्र और अन्य विद्वान् भी थे।
समवशरण में आकर इन्द्रभूति ने ज्योंही महावीर के तेजस्वी मुख-मण्डल एवं छत्रादि अतिशयों को देखा तो अत्यन्त प्रभावित हुए और महावीर ने जब उन्हें "इन्द्रभूति गौतम" कहकर सम्बोधित किया तो वे चकित हो गये । इन्द्रभूति ने मन ही मन सोचा- "मेरी ज्ञान विषयक सर्वत्र प्रसिद्धि के कारण इन्होंने नाम से पुकार लिया है। पर जब तक ये मेरे अंतरंग संशयों का छेदन नही कर दें, मैं इन्हें सर्वज्ञ नहीं मानूंगा।"
इन्द्रभूति का शंका-समाधान गौतम के मनोगत भावों को समझकर महावीर ने कहा-"गौतम ! मालूम होता है, तुम चिरकाल से प्रात्मा के विषय में शंकाशील हो।" इन्द्रभूति अपने अन्तर्मन के निगूढ़ प्रश्न को सुनकर अत्यन्त विस्मित हुए। उन्होंने कहा"हाँ मुझे यह शंका है। 'श्रुतियों में', विज्ञान-घन आत्मा भूत-समदाय से ही उत्पन्न हैती है और उसी में पुनः तिरोहित हो जाती है, अतः परलोक की संज्ञा नहीं, ऐसा कहा गया है । जैसे-'विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवान विनश्यति, न प्रेत्य संज्ञास्ति ।' इसके अनुसार पृथ्वी आदि भूतों से पृथक् पुरुषका अस्तित्व कैसे संभव हो सकता है ?"
१ अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिः, दिव्यध्वनिश्चामरमासनं च ।
भामण्डलं दुन्दुम्भिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वरस्य ।। २ प्रावश्यक, गा० ५३६ ।
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