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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[तीर्थस्थापना
भगवान के मुखारविन्द से कभी किसी के सम्मुख प्रकट नहीं की हई अपने मन की शंका एवं उस शंका का समाधान सुन कर इन्द्रभूति श्रद्धा तथा भक्ति के उद्रेक से प्रभुचरणों पर अवनत हो प्रभु के पास प्रथम शिष्य के रूप से दीक्षित हो गये। इस प्रकार गौतम इन्द्रभूति का निमित्त पाकर केवलज्ञान होने के ६६ दिन पश्चात् श्रावण-कृष्णा प्रतिपदा के दिन भगवान् महावीर ने प्रथम उपदेश दिया । यथा :
वासस्स पढममासे, सावरणरणामम्मि बहुल पडिवाए । अभिजीणक्खत्तम्मि य, उप्पत्ती धम्मतित्थस्स ।।
[तिलोयपण्णत्ती, १६८] तीर्थ स्थापना इन्द्रभति के पश्चात अग्निभूति आदि अन्य दस पण्डित भी क्रमशः प्राये और भगवान महावीर से अपनी शंकाओं का समाधान पा कर शिष्य मण्डली सहित दीक्षित हो गये। भगवान् महावीर ने उनको "उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा, धवेइ वा" इस प्रकार त्रिपदी का ज्ञान दिया। इसी त्रिपदी से इन्द्रभृति आदि विद्वानों ने द्वादशांग और दृष्टिवाद के अन्तर्गत चौदह पूर्व की रचना की और वे गणधर कहलाये।
महावीर की वीतरागमयी वाणी श्रवण कर एक ही दिन में उनके इन्द्रभूति आदि चार हजार चार सौ शिष्य हुए । प्रथम पाँच के पाँच-पाँच सौ, छठे और सातवें के साढ़े तीन तीन सौ, और शेष अन्तिम चार पण्डितों के तीनतीन सौ छात्र थे। इस तरह कुल मिलाकर चार हजार चार सौ हुए । भगवान् के धर्म संघ में राजकुमारी चन्दनबाला प्रथम साध्वी बनी। शंख शतक आदि ने श्रावक धर्म और सुलेसा आदि ने श्राविका धर्म स्वीकार किया। इस प्रकार 'मध्यमपावा' का वह 'महासेन वन' और वैशाख शुक्ला एकादशी का दिन धन्य हो गया जब भगवान महावीर ने श्रुतधर्म और चारित्र-धर्म की शिक्षा दे कर साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना को और स्वयं भावतीथंकर कहलाये।
महावीर को भाषा भगवान् महावीर ने अपना प्रवचन अर्धमागधी भाषा में किया था। भगवान् की भाषा को आर्य-अनार्य सभी सरलता से समझ लेते थे। जर्मन १ उप्पन्न विगम धुअपय तिम्मि कहिए जरणेण तो तेहिं ।
सव्वेहि विय बुद्धीहिं बारस अंगाई रइयाई ।। १५६४, महावीर चरित्र, (नेमिचन्द्र रचित) २ (क) समवा०, पृ० ५७ । (ख) प्रोपपातिक सूत्र, सू० ३४, पृ० १४६ । ३ (क) समवायांग, पृ० ५७। (ख) प्रोपपातिक सूत्र, पृ० १४६
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