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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[क्षमामूर्ति महामुनि
माता को उदास देख कर कृष्ण के मन में चिन्ता हुई । उन्होंने माता की मनोव्यथा समझी और उसे आश्वस्त किया ।
देवकी के मनोरथ की पूर्ति हेतु कृष्ण ने तीन दिन का निराहार तप कर देव का स्मरण किया। एकाग्र मन द्वारा किया गया चिन्तन इन्द्र-महेन्द्र का भी हृदय हर लेता है, फलस्वरूप हरिणगमेषी का प्रासन डोलायमान हुमा । वह प्राया।
देव के पूछने पर कृष्ण ने कहा-"मैं अपना लघु भाई चाहता हूं।"
देव ने कहा- "देवलोक से निकल कर एक जीव तुम्हारे सहोदर भाई के रूप में उत्पन्न होगा, पर बाल भाव से मुक्त होकर तरुण अवस्था में प्रवेश करते ही वह महन्त अरिष्टनेमि के पदारविन्द की शरण ले मण्डित हो दीक्षित होगा।"
__कृष्ण बड़े प्रसन्न हुए, उन्होंने सोचा-"माता की मनोभिलाषा पूर्ण होगी, मेरे लघु भाई होगा।"
प्रसन्न मद्रा में कृष्ण ने पाकर देवकी से सारी घटना कह सुनाई। कालान्तर में देवकी ने गर्भधारण किया और सिंह का शुभ-स्वप्न देखकर जागृत हुई । स्वप्नफल को जानकर महाराज वसुदेव और देवकी आदि सव प्रसन्न हुए। समय पर देवकी ने प्रशस्त-लक्षण सम्पन्न पुत्ररत्न को जन्म दिया । गजतालू के समान कोमल होने के कारण बालक का नाम गज सुकुमाल रखा गया। द्वितीया के चन्द्र की तरह क्रमशः सुखपूर्वक बढ़ते हुए गज सुकुमाल तरुण एवं भोग-समर्थ हुए।
द्वारिका नगरी में सोमिल नाम का एक ब्राह्मण रहता था, जो वेद-वेदांग 'का पारगामी था। उसकी भार्या सोमश्री से उत्पन्न सोमा नामकी एक कन्या
थी। किसी दिन सभी अलंकारों से विभूषित हो सोमा कन्या राजमार्ग के एक पार्श्व में अवस्थित अपने भवन के कीडांगण में स्वर्णकन्दुक से खेल रही थी। .... उस समय अरहा अरिष्टनेमि द्वारिका के सहस्राम्र उद्यान में पधारे हुए थे । अतः कृष्ण वासुदेव गज सुकुमाल के साथ गजारूढ़ हो प्रभु-वन्दन को निकले । मार्ग में उन्होंने उत्कृष्ट रूपलावण्य युक्त सर्वांग सुन्दरी सोमा कन्या को देखा । सोमा के रूप से विस्मित होकर कृष्ण ने राजपुरुषों को मादेश दिया"जाम्रो सोमिल ब्राह्मण से मांग कर इस सोमा कन्या को उसकी अनुमति से अन्त:पुर में पहुंचा दो। यह गज सुकुमाल की भार्या बनाई जायगी।"
तदनन्तर श्रीकृष्ण नगरी के मध्य मध्यवर्ती राजमार्ग से सहस्राम उद्यान में पहुंचे और प्रभु को वन्दन कर भगवान् की देशना सुनने लगे।
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