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गज सुकुमाल]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि
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धर्म कथा की समाप्ति पर कृष्ण अपने राज प्रासाद की ओर लौट गये किन्तु गज सुकुमाल शान्त मन से चिन्तन करते रहे । गज सुकुमाल ने खड़े होकर भगवान से कहा-"जगन्नाथ ! मैं आपकी वाणी पर श्रद्धा एवं प्रतीति करता हूँ. मेरी इच्छा है कि माता-पिता से पूछ कर आपके पास श्रमण-धर्म स्वीकार करू।" अहत् अरिष्टनेमि ने कहा-'हे देवानुप्रिय ! जिसमें तुम्हें सुखानुभूति हो, वही करो। प्रमाद न करो।" प्रभु को वन्दन कर गज सुकुमाल द्वारका की ओर प्रस्थित हुए।
राजभवन में प्राकर गज सुकुमाल ने माता देवकी के समक्ष प्रवजित होने की अपनी अभिलाषा प्रकट की। देवकी अश्रुतपूर्व अपने लिए इस वज्रकठोर वचन को सुन कर मूच्छित हो गई।
ज्ञात होते ही श्रीकृष्ण आये और गज सुकुमाल को दुलार से गोद में लेकर बोले-"तुम मेरे प्राणप्रिय लघु सहोदर हो, मैं अपना सर्वस्व तुम पर न्यौछावर करता हूं। अतः प्रर्हत् अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या ग्रहण मत करो, मैं द्वारवती नगरी के महाराज पद पर तुम्हें अभिषिक्त करता हूं।
गज सुकुमाल ने कहा-"अम्म-तात ! ये मनुष्य के काम-भोग मलवत छोड़ने योग्य हैं। आगे पीछे मनुष्य को इन्हें छोड़ना ही होगा। इसलिए मैं चाहता हूं कि आपकी अनुमति पाकर मैं अरिहन्त अरिष्टनेमि के चरणों में प्रव्रज्या लेकर स्व-पर का कल्याण करू ।"
विविध युक्ति-प्रयुक्तियों से समझाने पर भी जब गज सुकुमाल संसार के बन्धन में रहने को तैयार नहीं हुए, तब इच्छा न होते हुए भी माता-पिता और कृष्ण ने कहा-"वत्स! हम चाहते हैं कि अधिक नहीं तो कम से कम एक दिन के लिये ही सही, तू राज्य-लक्ष्मी का उपभोग अवश्य कर।"
__ श्री कृष्ण ने गज सुकुमाल का राज्याभिषेक किया, किन्तु गज सुकुमाल अपने निश्चय पर अडिग रहे ।
बड़े समारोह से गज सुकुमाल का निष्क्रमण हुआ। महंत अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित होकर गज सुकुमाल भणगार बन गये।
दीक्षित होकर उसी दिन दोपहर के समय वे महंत अरिष्टनेमि के पास माये और तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन कर बोले-"भगवन् ! आपकी मात्रा हो तो में महाकाल श्मशान में एक रात्रि की प्रतिमा ग्रहण कर रहना चाहता
भगवान् की अनुमति पाकर गज सुकुमाल ने प्रभु को वन्दन-नमस्कार किया और सहस्रान वन उद्यान से भगवान् के पास से निकलकर महाकाल
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