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रहस्य का उद्घाटन] भगवान् श्री अरिष्टनेमि उसकी शोक-ज्वाला को शान्त किया।'
अंतगड़ सूत्र से मिलता-जुलता हुअा वर्णन त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में निम्न प्रकार से उपलब्ध होता है :
सर्वज्ञ प्रभु के वचन सुनकर देवकी ने हर्षविभोर हो तत्काल उन छहों मनियों को वन्दन करते हए कहा- "मुझे प्रसन्नता है कि आखिर मुझे अपने पुत्रों को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुअा । यह भी मेरे लिये हर्ष का विषय है कि मेरी कुक्षि से उत्पन्न हुए एक पुत्र ने उत्कृष्ट कोटि का विशाल साम्राज्य प्राप्त किया है और शेष छहों पुत्रों ने मुक्ति का सर्वोत्कृष्ट साम्राज्य प्राप्त कराने वाली मुनिदीक्षा ग्रहण की है । पर मेरा हृदय इस संताप की भीषण ज्वाला से संतप्त हो रहा है कि तुम सातों सुन्दर पुत्रों के शैशवावस्था के लालन-पालन का अति मनोरम प्रानन्द मैंने स्वल्पमात्र भी अनुभव नहीं किया।"
देवकी को शान्त करते हुए करुणासागर प्रभु मरिष्टनेमि ने कहा"देवकी! तुम व्यर्थ का शोक छोड़ दो । अपने पूर्व-भव में तुमने अपनी सपत्नी के सात रत्नों को चरा लिया था और उसके द्वारा बार-बार माँगने पर भी उसे नहीं लौटाया । अन्त में उसके बहुत कुछ रोने-धोने पर उसका एक रत्न लौटाया और शेष छः रत्न तुमने अपने पास ही रखे । तुम्हारे उसी पाप का यह फल है कि तुम्हारे छः पुत्र अन्यत्र पाले गये पौर श्रीकृष्ण ही एक तुम्हारे पास हैं।
क्षमामूर्ति महामुनि गज सुकुमाल भगवान के समवसरण से लौटकर देवकी अपने प्रासाद में आ गई । पर भगवान् के मुख से छः मुनियों के रहस्य को जान कर उसका अन्तर्मन पुत्र-स्नेह से विकल हो उठा और उसके हृदय में मातृ-स्नेह हिलोरें लेने लगा।
वह यह सोच कर चिन्तामग्न हो गई कि ७ पुत्रों की जननी होकर भी मैं कितनी हतभागिनी हं कि एक भी स्तनधय पुत्र को गोद में लेकर स्तनपान नहीं करा पाई, मीठी-मीठी लोरियाँ गाकर अपने एक भी शिशु पर मातृ-स्नेह नहीं उँडेल सकी और एक भी पुत्र की शैशवावस्था की तुतलाती हुई मीठी बोली का पवणों से पान नर प्रानन्दविभोर न हो सकी। इस प्रकार विचार करती हुई वह अथाह शोकसागर में गोते लगाने लगी। उसने चिन्ता ही चिन्ता में खानापीना छोड़ दिया। १ तो तमायण्णिऊरण देवतीए वियलियो सोयप्पसरो ।।
[चउवन महापुरिस चरियं, पृ० १९८] २ सपल्या सप्त रत्नानि, त्वमाहार्षीः पुरा भवे । रुदत्याश्चापितं तस्या, रत्नमेकं पुनस्त्वया ॥
[त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ८, सर्ग १०, श्लोक ११५]
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