________________
३६२
जैन धर्म का मौलिक इतिहास [अरिष्टनेमि द्वारा अद्भुत
की राज्यश्री का उपभोग कर रहा हूँ और दूसरी ओर मेरे सहोदर छ: भाई भिक्षान्न पर जीवन-निर्वाह कर रहे हैं।''
"मेरे प्राणाधिक अग्रजो ! आज हम सबका नया जन्म हसा है । प्रायो! हम सातों सहोदर मिलकर इस अपार वैभव और राज्य-लक्ष्मी का उपभोग करें।"
वसुदेव आदि सभी उपस्थित यादवों ने श्रीकृष्ण की बात का बड़े हर्ष के साथ अनुमोदन करते हुए उन मुनियों से राज्य-वैभव का उपभोग करने की प्रार्थना की।
मनियों ने कहा-. "व्याध के जाल में एक बार फंसकर उस जाल से निकला हुया हरिण जिस प्रकार फिर कभी जाल के पास नहीं फटकता, उसी तरह विषय-भोगों के दारुण जाल से निकलकर अब हम उसमें नहीं फंसना चाहते । जन्म लेकर, एक बार फिर मिले हुए मर कर बिछुड़ जाते हैं, तत्त्ववेत्ताओं के लिये यही तो वैराग्य का मुख्य कारण होता है, पर हमने तो एक ही जन्म में दो जन्मों का प्रत्यक्ष अनुभव कर लिया है, फिर हमें क्यों नहीं विरक्ति होती ? सब प्रकार के स्नेह-बन्धनों को काटना ही तो साधुनों का चरम लक्ष्य है। फिर हम लोग स्नेहपाश को दुःख:मूल समझते हुए इन काटे हुए स्नेह-बन्धनों को पुनः जोड़ने का विचार ही क्यों करेंगे? हम तो इस स्नेह-बन्धन से मुक्त हो चुके हैं।"
"कर्मवश भवार्णव में डूबे हुए प्राणी को पग-पग पर वियोग का दारुण दुःख भोगना पड़ता है। अज्ञानवश मोहजाल में फंसा हुया प्राणी यह नहीं सोचता कि इन्द्रियों के विषय भयंकर काले सर्प की तरह सर्वनाश करने वाले हैं । लक्ष्मी प्रोस-बिन्दु के समान क्षण विध्वंसिनी है, अगाध समुद्र में गिरे हुए रत्न की तरह यह मनुष्य-जन्म पुनः दुर्लभ है । अतः मनुष्य जन्म पाकर सब दुःखों के मूलभूत कर्मबन्ध को काटने का प्रत्येक समझदार व्यक्ति को प्रयत्न करना चाहिये।
इस प्रकार अपने माता-पिता आदि को प्रतिबोध देकर वे छहों साधु भगवान् नेमिनाथ की सेवा में लौट गये ।
शोकसंतप्त देवकी भगवान् के समवसरण में पहुंची और त्रिकालदर्शी प्रभु नेमिनाथ ने कर्मविपाक की दारुणता बताते हुए अपने अमृतमय उपदेश से
१ केरिसा वा मइ रिद्धिसमंदये भिक्खा भोइणो तुम्हे ? किंवा ममेइण रज्जेण ?
[चउप्पन्न महापुरिस चरियं पृ० १९७] २ चउवन. महापुरिस चरियं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org