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________________ रहस्य का उद्घाटन] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३६१ स्वामी दूसरे जन्म में दास बन जाता है। एक जन्म की माँ दूसरे जन्म में सिंहनी बनकर अपने पूर्व के प्रिय पुत्र को मार कर उसके मांस से अपनी भूख मिटाने लग जाती है । एक जन्म में एक पिता अपने पुत्र को बड़े दुलार से पाल-पोसकर बड़ा करता है, वही पुत्र भवान्तर में उस पिता का भयंकर शत्र बनकर अपनी तीक्ष्ण तलवार से उसका सिर काट देता है । जिस माँ ने अपनी कुक्षि से जन्म दिये हुए पुत्र को अपने स्तनों का दूध पिलाकर प्यार से पाला, कर्मवश भटकती हुई वही माँ अपने उस पुत्र से अनंग-क्रीड़ा करती हुई अपनी काम-पिपासा शान्त करती है। उसी तरह पिता अपने दुष्कर्मों से अभिभूत अपनी पुत्री से मदन-क्रीड़ा करता हुआ अपनी कामाग्नि को शान्त करता है-ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध होते हैं। यह है इस संसार की घृणित और विचित्र नट-क्रीड़ा, जिसमें प्राणी अपने ही किये कर्मों के कारण नट की तरह विविध रूप धारण कर भव-भ्रमण करता रहता है और पग-पग पर दारुण दुःखों को भोगता हुअा भी मोह एवं अज्ञानवश लाखों जीवों का घोर संहार करता हुआ मदोन्मत्त स्वेच्छाचारी हाथी की तरह दुःखानुबन्धी विषय-भोगों में निरन्तर प्रवृत्त होता रहता है। निविड़ कर्म-बन्धनों से जकड़े हुए प्राणी को माता-पिता-पुत्र-कलत्र सहज ही प्राप्त हो जाते हैं और वह मकड़ी की तरह अपने ही बनाये हुए भयंकर कुटुम्ब-जाल में फंसकर जीवन भर तड़पता एवं दुःखों से बिलबिलाता रहता है तथा अन्त में मर जाता है।" "इस तरह पुनः पुनः जन्म ग्रहण करता और मरता है । संसार की इस दारुण व भयावह स्थिति को देखकर हम लोगों को विरक्ति हो गई। हमने भगवान् नेमिनाथ के पास संयम ग्रहण कर लिया और संसार के इस दुःखदायक आवागमन के मूल कारण कर्म-बन्धनों को काटने में सतत प्रयत्नशील रहने लगे हैं।" __इस परमाश्चर्योत्पादक वृत्तान्त को सुनकर वसुदेव, बलराम और कृष्ण आदि भी वहाँ श्रा पहुंचे । वसुदेव अपने सात पुत्रों के बीच ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो अपने सात नक्षत्रों के साथ स्वयं चन्द्रमा ही वहां प्रा उपस्थित हो गया हो। सबकी आँखों से आँसूत्रों की मानो गंगा-यमुना पूर्ण प्रवाह से बह रही थी, सबके हृदयों में स्नेह-सागर हिलोरें ले रहा था, सब विस्फारित नेत्रों से टकटकी लगाये साश्चर्य उन छहों मुनियों की ओर देख रहे थे, पर छहों मुनि शान्त रागरहित निर्विकार सहज मुद्रा में खड़े थे। कृष्ण ने भावातिरेक के कारण अवरुद्ध कण्ठ से कहा-"हमारे इस अचिन्त्य, अदभत मिलन से किसको आश्चर्य नहीं होगा? हा दुर्दैव ! कंस के मारे जाने के पश्चात् भी हम उसके द्वारा पैदा किये गये विछोह के दावानल में अब तक जल रहे हैं । कैसी है यह विधि की विडम्बना कि एक ओर मैं त्रिखण्ड १ चउप्पन महापुरिस चरियं, पृ० १९६-१९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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