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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बकरी ने अपनी बोली में बकरे से कहा- 'स्वामिन् ! राजा के घोड़े को चराने के लिए जो हरी-हरी जी की पूलियाँ पड़ी हुई हैं, उनमें से एक पूली लामो जिसे खाकर मैं अपना दोहला पूर्ण करूं।"
बकरे ने कहा- “ऐसा करने पर तो मैं राज-पुरुषों द्वारा मार डाला जाऊँगा।"
- बकरी ने हठपूर्वक कहा-“यदि तुम जो की पूली नहीं लायोगे तो मैं मर जाऊँगी।"
बकरे ने कहा-"तू मर जायगी तो मैं दूसरी बकरी को अपनी पत्नी बना लूंगा।"
बकरी ने कहा- "इस राजा के प्रेम को भी तो देखो कि अपनी पत्नी के स्नेह में जान-बूझ कर मृत्यु का आलिंगन कर रहा है।"
बकरे ने उत्तर दिया- "अनेक पत्नियों का स्वामी होकर भी ब्रह्मदत्त एक स्त्री के हठ के कारण पतंगे की मौत मरने की मूर्खता कर रहा है, पर मैं इसकी तरह मूर्ख नहीं हूँ।"
बकरे की बात सुन कर ब्रह्मदत्त को अपनी मूर्खता पर खेद हुअा और अपने प्रारण बचाने वाले बकरे के गले में अपना अमूल्य हार डाल कर राजप्रासाद की ओर लौट गया तथा प्रानन्द के साथ राज्यश्री का उपभोग करने लगा।
चक्रवर्ती की राज्यश्री का उपभोग करते हुए जब ५८४ वर्ष बीत चुके उस समय उसका पूर्व-परिचित एक ब्राह्मण उसके पास पाया । ब्रह्मदत्त ने परिचय पाकर ब्राह्मण को बड़ा आदर-सम्मान दिया।
भोजन के समय ब्राह्मण ने ब्रह्मदत्त से कहा-"राजन् ! जो भोजन आपके लिए बना है, उसी भोजन को खाने की मेरी अभिलाषा है।"
ब्रह्मदत्त ने कहा- "ब्रह्मन् ! वह आपके लिए दुष्पाच्य और उन्मादकारी होगा।"
. ब्रह्महठ के सामने ब्रह्मदत्त को हार माननी पड़ी और उसने उस ब्राह्मण तथा उसके परिवार के सब सदस्यों को अपने लिए बनाया हुमा भोजन खिला दिया।
रात्रि होते ही उस अत्यन्त गरिष्ठ प्रौर उत्तेजक भोजन ने अपना प्रभाव प्रकट करना प्रारम्भ किया। अदम्य कामाग्नि ब्राह्मण-परिवार के रोम-रोम से
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