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विशिष्ट देवियों के रूप में] भगवान् श्री पार्श्वनाथ
५१६ चौथे वर्ग में उत्तर के नव निकायों के उत्तरेन्द्रों की ५४ अग्रमहिषियाँ । पाँचवें वर्ग में व्यन्तर के ३२ दक्षिणेन्द्रों की ३२ देवियाँ । छठे वर्ग में व्यन्तर के ३२ उत्तरेन्द्रों की ३२ देवियाँ।। सातवें वर्ग में चन्द्र की ४ अग्रमहिषियाँ । आठवें वर्ग में सूर्य की चार (४) अग्रमहिषियाँ । नवें वर्ग में शकेन्द्र की ८ अग्रमहिषियाँ और दशवें वर्ग में ईशानेन्द्र की पाठ (८) अग्रमहिषियाँ ।
प्रथम वर्ग में चमरेन्द्र की काली, राई, रयणी, विज्जू और मेघा इन ५ अग्रमहिषियों के कथानक दिये हुए हैं।
प्रथम काली देवी ने भगवान् महावीर को राजगृह नगर में विराजमान देख कर भक्तिपूर्वक सविधि वन्दन किया और फिर अपने देव-देवीगण के साथ प्रभ की सेवा में आकर सूर्याभ देव की तरह अपनी वैक्रियशक्ति से नाट्यकला का प्रदर्शन किया और अपने स्थान को लौट गई।
गौतम गणधर द्वारा उसके पूर्वभव की पच्छा करने पर प्रभु ने फरमाया"जम्बू द्वीप के भारतवर्ष की आमलकल्पा नाम की नगरी में काल नामक गाथापति की काल श्री भार्या की कुक्षि से काली बालिका का जन्म हुआ । वह वृद्ध वय की हो जाने तक भी कुमारी ही रही, इसलिए उसे वृद्धा-वृद्धकुमारी, जुन्नाजुन्नकुमारी कहा गया है।
आमलकल्पा नगरी में किसी समय भगवान् पार्श्वनाथ का शुभागमन
हुआ।
भगवान का आगमन जान कर काली भी प्रभुवन्दन के लिए समवशरण में गई और वहाँ प्रभु के मुखारविन्द से धर्मोपदेश सुन कर संसार से विरक्ति हो गई। उसने अपने घर लौट कर मातापिता के समक्ष प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की और मातापिता की आज्ञा प्राप्त होने पर वह भगवान् पार्श्वनाथ के पास प्रवजित हो गई । स्वयं पुरुषादानीय भगवान् पाश्वनाथ ने उसे पुष्पचूला प्रार्या को शिष्या रूप में सौंपा। प्रार्या काली एकादश अंगों की ज्ञाता होकर चतुर्थ, षष्ठ, अष्टभक्तादि तपस्या से प्रात्मा को भावित करती हुई विचरने लगी।
अन्यदा आर्या काली शरीरबाकूशिका होकर बार-बार अपने अंग-उपांगों को धोती और बैठने, सोने आदि के स्थान को पानी से छींटा करती । पुष्पचूला
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