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जैन धर्म का मौलिक इतिहास (चण्डकौशिक का परशु हाथ में लिए क्रुद्ध हो कुमारों के पीछे दौड़ा। तापस को आते देख कर राजकुमार भाग निकले।
तापस परशु हाथ में लिए उन कुमारों के पीछे दौड़ा और एक गड्ढे में गिर पड़ा। परशु की धार से तापस चण्डकौशिक का शिर कट गया और तत्काल मर कर वह उसी वन में दृष्टिविष सर्प के रूप में उत्पन्न हुअा। वह अपने पहले के क्रोध और ममत्व के कारण वनखण्ड की रक्षा करने लगा। वह चण्डकौशिक सर्प उस वन में किसी को नहीं आने देता था। आश्रम के बहत से तापस भी उस सर्प के विष के. प्रभाव से जल गये और जो थोड़े बहत बचे थे, वे भी उस आश्रम को छोड़ कर अन्यत्र चले गये ।
वह चण्डकौशिक महानाग रात-दिन उस सारे वनखण्ड में इधर से उधर चक्कर लगाता रहता था और पक्षी तक को भी वन में देखता तो उसे तत्काल अपने भयंकर विष से जला डालता था।
उत्तर विशाला के पथ पर आगे बढ़ते हुए भगवान् महावीर चण्डकौशिक द्वारा उजाड़े गये उस वन में पहुंचे। उन्होंने बिना किसी भय और संशय के उस वन में स्थित यक्षगह के मण्डप में ध्यान लगाया। उनके मन में विश्वप्रेम की विमल गंगा बह रही थी और विमल दृष्टि में अमृत का सागर हिलोरें ले रहा था।
प्रभ के मन में सर्प चण्डकौशिक का कोई भय नहीं था। उनके मन में तो चण्डकौशिक का उद्धार करने की भावना थी।
अपने रक्षणीय वन की सीमा में महावीर को ध्यानस्थ खड़े देख कर चण्डकौशिक सर्प ने अपनी क्रोधपूर्ण दृष्टि डाली और अतीव क्रुद्ध हो फूत्कार करने लगा। किन्तु भगवान महावीर पर उसकी विषमय दष्टि का किंचिन्मात्र भी प्रभाव नहीं हुआ।
यह देख कर चण्डकौशिक को क्रोधाग्नि और भी अधिक प्रचण्ड हो गई। उसने अावेश में प्राकर भगवान महावीर के पैर और शरीर पर जहरीला दंष्टाघात किया । इस पर भी भगवान् निर्भय एवं अडोल खड़े ही रहे । नाग ने देखा कि रक्त के स्थान पर प्रभु के शरीर से दूध सी श्वेत और मधुर धारा बह रही है।
साधारण लोग इस बात पर आश्चर्य करेंगे किन्तु वास्तव में आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है । देखा जाता है कि पुत्रवती माँ के मन में एक बालक के प्रति प्रगाढ़ प्रीति होने के कारण उसके स्तन दूध से भर जाते हैं, रक्त दूध का रूप धारण कर लेता है।
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